पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

 

Criticism of first published part of Puraanic Subject Index  by Shri Ramesh Chandra Chaturvedi, Dr. Sachchidananda Shastri and Dr. Fatah Singh

(Continued )

पुराण : वेदालोक में

वैदिक वाङ्मय के प्रख्यात विवेचक डाँ फतहसिंह के सुयोग्य शिष्य श्री विपिन कुमार ने अपनी अनुजा डाँ राधा गुप्ता के सहकार से वैदिक टिप्पणियों सहित पुराणों के विषयों की अनुक्रमणिका की संरचना करने का उपक्रम किया हैइसके प्रथम खण्ड से इसकी उपादेयता और महनीयता स्पष्ट हैइस खण्ड में , और से आरम्भ होने वाले ४०७ शब्दों को लिया गया हैइनमें से अधिकांश शब्दों पर वैदिक सन्दर्भों की विवेचना के साथ विशद टिप्पणियाँ प्रस्तुत की गई हैंइससे वैदिक और पौराणिक वाङ्मय के अन्त: - सम्बन्ध का प्रकाशन सम्भव हो सका है

          समस्त विश्व के चिन्तकों पर और विशेष रूप से भारतीय चिन्तन - परम्परा पर वैदिक विचारों का अप्रतिम प्रभाव हैवैदिक वाङ्मय में निहित गूढ तत्त्वों के विश्लेषण के प्रयास विद्वान् करते रहे हैंमहाभारत के आरम्भ ( ..२७ ) में कहा गया है कि इतिहास और पुराण वैदिक चिन्तन के सम्यक् उपबृंहण ( अर्थात् , विवेचन ) के लिए हैं अन्यथा वेद मन्त्रों के

अध्ययन - मात्र से वेदों की रक्षा सम्भव नहीं हैवहीं (..८६ ) में कहा गया है - पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योvत्स्ना प्रकाशितापुराण विविध आख्यानों और उपाख्यानों द्वारा , लोकशिक्षण के साथ साथ, वेदों के महनीय चिन्तन का विवेचन प्रस्तुत करते हैंकिन्हीं विद्वानों के विचारानुसार वेदार्थ के उपबृंहण करने वाले विविध प्रयासों में पुराणों की प्रमुखता है

          उपबृंहण शब्द का अर्थ है किसी तथ्य की पुष्टि अथवा विवेचनवेदार्थ के उपबृंहण के लिए पुराणों ने अनेक विधाएं अपनाई हैंजैसे , कहीं वैदिक मन्त्रों की पदावली पौराणिक स्तुतियों में स्पष्टतः परिलक्षित होती हैऋग्वेद के पुरुष - सूक्त की पदावली विष्णु की पौराणिक स्तुतियों में बहुधा मिलती हैवैदिक विचारों का व्याख्यान कथानक - रूप में विविध स्थलों पर प्राप्त होता हैउदाहरण - स्वरूप , शतपथ ब्राह्मण ...१८ और तैत्तिरीय आरण्यक .१२. में अहल्यायै जार जैसे वाक्य से रात्रि के अंधकार के निवारक सूर्य के उदय का वर्णन प्रस्तुत हुआ हैवैदिक साहित्य में अहल्या शब्द रात्रि का वाचक हैअह: ( दिन ) का जिसमें लय होता है वह अहल्या ( रात्रि ) हैरात्रि का जरण ( विच्छेद ) करने वाला सूर्य हैपुराणों में गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र नामक देव का उपपति रूप में समागम वर्णित हैयहाँ , वैदिक और पौराणिक वर्णनों में , अन्तर शब्दप्रयोग - गत भी है वेद में अहल्या और पुराण में अहिल्या , दो भिन्न - भिन्न वर्तनियां हैंकिन्तु इस स्वल्प भेद को छोड दें तो दोनों में साम्य स्पष्ट हैसूर्य रात्रि का जरण ( जीर्णतापादन ) करता है तो इन्द्र अहिल्या का

          वैदिक और पौराणिक वाङ्मयों में वर्णित तथ्यों की समानता को बूझने की दिशा में विपिन कुमार और राधा गुप्ता ने संदर्भ कोश की रचना का जो उपक्रम किया है उससे वैदिक तथ्यों का विवेचन और उभय वाङ्मयों के अन्त संबंधों का गहन परिचय प्राप्त हो सकेगा , यह विश्वास है

          पुराण - विषयानुक्रमणिका के इस प्रथम खण्ड में शब्दों के पौराणिक संदर्भों का उल्लेख है और उनकी विवेचना हेतु वैदिक वाङ्मय में उन - उन शब्दों के प्रयोग - स्थलों का निर्देश किया गया हैवैदिक तथ्यों की विवेचना में पौराणिक वर्णनों द्वारा मिलने वाली सहायता की ओर इंगित किया गया हैउदाहरण - स्वरूप , इषु शब्द के विभिन्न प्रयोगों की समीक्षा करते हुए इस शब्द का अभिप्रेतार्थ सीधा , सरल निर्दिष्ट किया हैअनेक टिप्पणियों द्वारा विभिन्न शब्दों के प्रयोगों के लम्बे इतिहास पर व्यापक दृष्टि से विचार करने का महनीय कार्य किया गया हैआशा है , अगि| खण्डों में वे वैदिक तथ्यों की विवेचना में और भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करेंगेश्री विपिन कुमार ने विज्ञान की उच्च शिक्षा प्राप्त की हैउनके वैदिक ज्ञान के साथ विज्ञान का गंभीर परिचय सोने में सुहागे के रूप में यहाँ इस ग्रन्थ में परिलक्षित होता है

 - श्री रमेशचन्द्र चतुर्वेदी

 ( श्री लालबहादुर शास्त्री राष्टि} संस्कृत विद्यापीठ , नई दिल्ली )

 वेद सविता, सितम्बर १९९७

 

 

जो कार्य लेखक - द्वय श्री विपिन कुमार और डाँ राधा गुप्ता द्वारा अब आरम्भ किया जा रहा है, वह अबसे ५० वर्ष पूर्व समाप्त हो जाना चाहिए थाप्रस्तुत कार्य में वर्णमाला के केवल तीन अक्षरों - , की पुराण अनुक्रमणिका प्रस्तुत की गई हैइस प्रकार लगता है कि वर्णमाला के ५० अक्षरों की पूरी अनुक्रमणिका बनाने के लिए इस आकार के १५ -२० भागों की आवश्यकता पडेगीआज के भौतिक प्रतिस्पर्धा के युग में संस्कृत का गहन अध्ययन करने का समय प्रत्येक व्यक्ति के पास नहीं हैलेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी आध्यात्मिक जिज्ञासा कम हैअतः ऐसे कार्य की बहुत आवश्यकता है जो शिक्षित वर्ग की आध्यात्मिक जिज्ञासा को पूरा कर सकेअब प्रस्तुत पुस्तक इस दिशा में एक और प्रयास हैहमारे पौराणिक साहित्य में बहुत सा ज्ञान भरा पडा है जिसे प्रकाश में लाने की आवश्यकता हैलेखकों ने अपनी विषय अनुक्रमणिक बनाते समय सर्वमान्य १८ पुराणों को तो लिया ही है , इसके अतिरिक्त हरिवंश पुराण , देवीभागवत पुराण , वाल्मीकि रामायण , कथासरित्सागर , योगवासिष्ठ , लक्ष्मीनारायण संहिता , महाभारत आदि ग्रन्थों को भी अपनी अनुक्रमणिका में सम्मिलित किया है जिससे यह अनुक्रमणिका पौराणिक ज्ञान की दृष्टि से अपनी पूर्णता को प्राप्त करती हुई प्रतीत होती हैहो सकता है कि किसी आध्यात्मिक रहस्य का उद्घाटन १८ पुराणों में हो पाया हो और वह रामायण , महाभारत आदि ग्रन्थों में हो गया होउदाहरण के लिए अगस्त्य ऋषि को पुराणों में समुद्र का पान करते हुए वर्णित किया गया हैलेकिन यह समुद्र कौन सा है जिसका अगस्त्य ऋषि पान करते हैं , इसका उद्घाटन केवल योगवासिष्ठ में ही किया गया है कि यह काल का समुद्र हैऔर जिन तथ्यों का रहस्योद्घाटन पौराणिक साहित्य में नहीं हो पाया , उनको लेखकों द्वारा वैदिक साहित्य के माध्यम से अपनी टिप्पणियों में उद्घाटित करने का प्रयास किया हैजहां लेखकों ने रहस्योद्घाटन करने में अपने का असमर्थ पाया , वहां इन्होंने उन प्रश्नों को भविष्य के लिए खुला छोड दिया हैइसके अतिरिक्त सबसे अच्छी बात यह है कि लेखकों ने किसी उद्घाटित तथ्य के लिए ऐसा नहीं लिखा है कि यही सर्वमान्य तथ्य है , ल्क उन्होंने लिखा है कि उन्हें ऐसा प्रतीत होता है , अथवा ऐसी संभावना हैFछा होता यदि परिशिष्ट के रूप में लेखक वैदिक साहित्य के वह अंश भी दे देते जो वह समझ नहीं पाए हैं क्योंकि पाठक को यह जानने का अधिकार है कि कहीं लेखकों ने तथ्यों को अपने पक्ष में तोड - मरोड तो नहीं लिया है , अथवा केवल अपने पक्ष की बात स्वीकार करके दूसरे पक्ष की उपेक्षा तो नहीं कर दी हैआशा है आगे के भागों में लेखक इस पर विचार करेंगे

          बहुत सुन्दर प्रयास होते हुए भी यह ग्रन्थ त्रुटियों से मुक्त नहीं हैपुराणों में उपलब्ध बहुत सी सामग्री प्रस्तुत अनुक्रमणिका में स्थान नहीं पा सकी हैउदाहरण के लिए , स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड के अन्तर्गत जगन्नाथ क्षेत्र माहात्म्य में अध्याय में अन्तर्वेदी का वर्णन आता है जो पौराणिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैलेकिन प्रस्तुत अनुक्रमणिका में अन्तर्वेदी शीर्षक के अन्तर्गत इसका उल्लेख ही नहीं हैऐसा लगता है जैसे लेखकों ने पुराणों का गम्भीर अध्ययन ही किया हो अनुक्रमणिका में कहीं तो महाभारत से सामग्री का चयन कर लिया गया है , कहीं वह छोड दिया गया हैयही हाल टिप्पणियों का हैकिसी - किसी शीर्षक के लिए तो लम्बी - लम्बी टिप्पणियां लिख डाली हैं , किसी के लिए साहित्य का गहन अध्ययन किए बिना छोटी सी टिप्पणी लिख दी है और किसी शीर्षक के लिए बिल्कुल ही नहीं लिखी हैफिर , लेखकों ने जो सहायक ग्रन्थ सूची दी है , उससे लगता है कि लेखकों द्वारा सामग्री का चयन बहुत अधूरा है तान्त्रिक साहित्य को तो लेखकों ने छुआ ही नहीं है , गृह्य सूत्र ग्रन्थों को भी नहीं छुआ हैजो कुछ श्रौत सूत्रों के ग्रन्थ लिए हैं , वह भी गिने चुने हैंऔर टिप्पणियों के पठन से यह ज्ञात हो जाता है कि लेखकों ने अपने टिप्पणी लेखन में इन सबका उपयोग भी नहीं किया हैमात्र दिखावे के लिए ग्रन्थों को सूची में सम्मिलित कर लिया गया हैयह एक बडा दोष है जिसे आगे के भागों में सुधारा जाना चाहिएएक बात और हैहमारा सारा प्राचीन ज्ञान आध्यात्मिक रहस्यों पर आधारित हैलेखकद्वय से यह आशा नहीं की जा सकती कि साधना के क्षेत्र में उनका विकास बहुत अधिक होगाहमारे देश में ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं जिनकी साधना बहुत उच्च स्तर की हैयदि लेखक अपना लेखन कार्य करते समय ऐसे महापुरुषों से परामर्श कर लेते तो प्रस्तुत कार्य पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता था

          आशा है कि यह ग्रन्थ सनातन धर्मावलम्बियों , आर्य समाजिययों और नास्तिकों , सबके लिए समान रूप से उपयोगी होगायही नहीं , इसमें मुस्लिम धर्मावलम्बियों के लिए भी अकबर और ईद आदि शब्दों की नई व्याख्याएं प्रस्तुत हैंअकबर शब्द की व्याख्या करते समय यदि अकवारि शब्द को थोडा और स्पष्ट कर दिया जाता तो सभी लोगों की समझ में सकता था

 - डाँ सच्चिदानन्द शास्त्री

 सार्वदेशिक साप्ताहिक ,

नई दिल्ली

 ११ अगस्त , १९९६

 

श्री विपिन कुमार तथा डाँ. राधा गुप्ता द्वारा पुराण विषय अनुक्रमणिका नाम से तैयार किया गया ग्रन्थ सर्वथा स्तुत्य हैप्रथम भाग में केवल से तक ही पहुfचा जा सका हैपरन्तु १८६ पृष्ठों के इस भाग को देखकर भी यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि पूरा ग्रन्थ भारतीय परम्परा को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी होगायद्यपि नाम से यही प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध पुराण साहित्य से होगा , परन्तु अनेक संदर्भों में तथा टिप्पणियों के लेखन में वैदिक ग्रन्थों का उल्लेख कर स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ वस्तुतः पुराणों की वेदमूलकता सिद्ध कर रहा हैयह इसलिए महत्वपूर्ण है कि प्रायः पुराणों को गपोडों के ग्रन्थ माना जाता है , यद्यपि पुराण स्वयं इतिहास पुराणाभ्यां वेदान् समुपबृंहयेत की रट लगाते रहे हैं

          निसंदेह , इससे पुराणों एवं रामायण - महाभारत के अनेक प्रसंगों में प्रयुक्त प्रतीकवाद को समझने में बडी सहायता मिलेगीइससे भी बडी बात यह है कि यह प्रतीकवाद वेदमूलक सिद्ध होगाऐसे महत्वपूर्ण और उपयोगी कार्य के लिए लेखकद्वय बधाई के पात्र हैंआशा है यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय की शोभा बढाएगा और प्राचीन वाङ्मय , इतिहास और संस्कृति का प्रत्येक अध्येता इससे लाभान्वित होगा

 फतहसिंह

 एम..,  डी.लिट.

 पूर्व निदेशक , प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान ,जोधपुर ,

 और वेद संस्थान , नई दिल्ली

 वर्तमान निदेशक, वैदिक अनुसन्धान केन्द्र , जोधपुर