पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX
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Criticism of first published part of puraanic subject index by Shri Vishwambhar Dev Shastri, Dr. Rudra Dev Tripathi and Shri Kala Nath Shastri पुराण विषय अनुक्रमणिका के पिछले भाग की समालोचनाएं : फाल्गुन पूर्णिमा , २०५२ ५.३.९६ विश्वम्भरदेव शास्त्री सेवा मुक्त प्रवक्ता , हरपतराय उ. मा. विद्यालय, देवबन्द । लेखक - द्वय द्वारा संकलित पुराण विषय अनुक्रमणिका का यह प्रथम भाग प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है । इस भौतिक काल के कलरव में रहते हुए भी तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि ( ऋग्वेद )के अनुसार पूर्व पुण्यों के उदय तथा पैत्रिक संस्कारों के प्रभाव से आध्यात्मिक देवधारा में अवगाहन का फल किसी भाग्यशाली को प्राप्त होता है । यह प्रत्यक्ष प्रमाण है - स्वाध्यायशील श्री बलवीरसिंह जी की संस्कृत के प्रति अगाध श्रद्धा रही - अपने सतत् परिश्रम से योगवासिष्ठ जैसे गहन ग्रन्थ को हृदयपटल पर अंकित करना साधारण बुद्धि का काम नहीं । प्रातः भ्रमण काल में अपने अनुभव प्रकट करते और कहते रहते - शास्त्री जी , मैं संस्कृत तो पढा ही नहीं । आज अपने ज्ञान को अपनी सन्तानों द्वारा विकसित देख इनको कितनी आनन्दानुभूति हो रही है , यह अवर्णनीय है । पिता की आध्यात्मिक प्रकृति का उत्तराधिकार पुत्री सौ. राधा और विपिन को प्राप्त हुआ । ऐश्वर्य कांक्षिणी राधा गृहस्थ का भार सम्भालते हुए भी ऋषियों की थाति संस्कृत के प्रति कितनी निष्ठा रखती है , यह तो एम. ए. परीक्षा के समय उसकी प्रखर बुद्धि का आभास हो गया था । जो एक बार पढ लिया , उसकी पुनरावृत्ति कभी नहीं की । पुनः पी. एच. डी. और डी. लिट् की उच्चतम उपाधि से अलंकृत हुई - अब अपने अर्जित कोष को वितरण करने में तत्पर है । चि. विपिन का प्रारम्भिक जीवन जिज्ञासु प्रकृति का रहा । तर्क - वितर्क करके किसी बात का निर्णय करना एक स्वभाव था । वह उत्कण्ठा इतनी जागृत हुई कि बिना संस्कृत विषय पढे ही - वेदार्थ जानने की लालसा बढी और अपना जीवन ही मुनिवत् वैदिक साहित्य की ओर अर्पित कर दिया । मैं दोनों की पूर्ण सफलता की कामना करता हूं - इनका यह सात्विक प्रयास निरन्तर उन्नत होता रहे । परम पिता परमात्मा इनके उज्ज्वल भविष्य में सहायक बनें । वेद मन्त्र द्वारा मैं भी अपनी सद्भावना प्रस्तुत करता हूं । हिरण्यमयेन पात्रेण , सत्यख्यापिहितं मुखम~ । तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।। शमिति -विश्वम्भरदेव शास्त्री देवबन्द
आपकी यह साहित्य सेवा अत्यन्त श्लाघनीय एवं महत्त्वपूर्ण है । ऐसे दीर्घकालसाध्य एवं बहु - आयामी कार्य प्रायः संस्थाविशेष के माध्यम से ही होते रहे हैं । इस प्रथम भाग के पर्यालोचन से ज्ञात होता है कि आपने पुराणों के साथ ही वैदिक वाङ्मय के आलोडन में भी पर्याप्त प्रयास किया है । इस ग्रन्थ के अध्येता को मूल स्थान और उसके विकास - विस्तार का ज्ञान भी सहज प्राप्त हो जाता है । संस्कृत साहित्य की विशाल परिधि में व्याप्त तथ्यों का एकत्र प्रस्तुतीकरण परमोपयोगी बना है । हां, एक बात यह भी स्मरणीय है कि हमारे यहां वेंकटेश्वर प्रेस , मुम्बई से प्रकाशित पुराण जब प्रकाशित हुए थे , तब उनके प्रकाशन के समय शोधदृष्टि को महत्त्व नहीं दिया गया था । किन्तु उस समय के पश्चात् अनेक अनुसन्धान कर्ताओं ने कतिपय पाठ और मिलने के सङ्केत दिये हैं ( जैसे स्कन्द पुराण का एक उमाखण्ड नेपाल के संस्कृत विश्वविद्यालय से कुछ वर्ष पूर्व सम्पादित होकर छपा है । उसकी भूमिका में सम्पादक ने बंगाल और अन्य प्रदेशों की पाण्डुलिपियों से उसे प्राप्त कर छपवाया है ) । इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्त्त और ब्रह्माण्डपुराण के भी कुछ भाग तञ्जौर और अन्यत्र अन्य दक्षिण के पुस्तकालयों में मिलते हैं । मराठी के एक प्राचीन मासिक अंकुश ( पूना से प्रकाशित ) में ब्रह्माण्डपुराण के गणेश खण्ड का सूचन है जिसमें बहुत सा विषय इधर के ब्रह्माण्डपुराणों में अनुपलब्ध है । - रुद्र देव त्रिपाठी ए- १५ , मणिद्वीप , रामटेकरी , मन्दसौर ( म.प्र. ) ४५८००९ वेद से जोडने वाला पुराण - संदर्भ - कोष पुराण महोदधि के रत्नों की खोज के क्रम में विश्वकोषीय प्रयास का एक नमूना हाल ही में सामने आया है , जिसमें अकारादि क्रम से पुराणों के वर्ण्य विषयों ,संज्ञाओं तथा अभिधानों के अर्थों, सन्दर्भों आदि का विवरण , साथ ही उनके वैदिक उत्सों का विवरण ही नहीं , उनके निर्वचन और व्याख्या की दिशा देने वाले मंतव्यों का भी समावेश है । लगता है कि यदि पूरा विश्वकोष बनाने का प्रयास किया जाए , तो यह दशाब्दियों में जाकर पूरा होने वाला विराट् उपक्रम होगा क्योंकि हमारे सामने आया यह संदर्भ कोष तो केवल अ से इ तक के शब्दों का ही वर्णक्रम कोष है । यदि क्रम चलता रहे तो ह तक पूरा होने में न जाने कितने खण्ड आवश्यक होंगे । इस नमूने से भी इस कार्य की विशालता का आभास हो जाता है । यद्यपि कुछ पुराण कोश हिन्दी में प्रकाशित हुए हैं , श्री सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव जैसे विद्वानों ने मराठी आदि भाषाओं में चरित्र कोष ( संज्ञाओं और नामों के कोष ) भी प्रकाशित किए थे , जिनके हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए , तथापि शोधात्मक दृष्टि से किस संज्ञा की किस प्रकार कथाएं पुराणों में आती हैं , यह संदर्भ देने के साथ उनका रूप वेदों , ब्राह्मणों , उपनिषदों आदि में कैसा था , उसका प्रतीक लेकर पुराणों में जो कथाएं आई , उनकी वैदिक परंपरा के साथ संगति किस प्रकार बिठाई जा सकती है , इसका सर्वांगीण विवेचन करने वाला संपूर्ण वर्णक्रम कोश अब तक देखने में नहीं आया था । इस प्रयास के पूर्ण होने से यह अपेक्षा पूरी हो सकती है , ऐसी आशा बंधी है । डां. फतहसिंह जैसे वेद विद्वान् के मार्गदर्शन में शोध करने वाले दो अनुसंधित्सुओं के परिश्रम से प्रसूत यह अनुक्रमणिका अत्रि , इन्द्र , अंगिरा आदि चरित्रों की ,अवतार, अग्निष्टोम आदि अवधारणाओं की तथा अंक, इन्द्रिय आदि संज्ञाओं की प्रविष्टि देकर उनका संदर्भ किस पुराण में कहां आया है , इसका निर्देश करती है। उसके बाद महत्वपूर्ण प्रविष्टियों में विस्तृत टिप्पणी देकर यह स्पष्ट करती है कि वेद वाङ्मय में इस का मूल क्या था तथा पुराणों में जो कथाएं बनीं , उन्हें वैदिक अवधारणा के प्रतीक के रूप में कैसे समझा जाए । उदाहरणार्थ अश्व शब्द की प्रविष्टि पहले तो पुराणों में वर्णित अश्वों के प्रकार , उनकी चिकित्सा आदि का , अश्वों के उपाख्यानों का , पुराणों में आए अश्व , अश्वमेध , अश्वरथ, अश्वदान आदि का ससंदर्भ ( खण्डों और अध्यायों के संदर्भों सहित ) विवरण है , फिर टिप्पणी के रूप में वैदिक अवधारणाओं का विमर्श है कि किस प्रकार ज्ञान , क्रिया , भावना के त्रिक में भावना अश्व है , उसे मेध्य (पावन ) बनाना अश्वमेध है । इसके साथ ऋग्वेद में आए अश्वसूक्तों , ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का अश्व बनकर उक्थों से असुरों को निकाल फेंकने के उल्लेखों के साथ भविष्य पुराण की हयविजय कथा की संगति , सूर्य के रथ के सात अश्वों की , आश्वमेधिक अश्व की बंधन रज्जु के १३ अरत्नि लंबे होने को १३ मासों का प्रतीक समझने की , अश्वशीर्ष दधीचि द्वारा मधुविद्या के उपदेश की ( दधि, मधु , घृत , परमान्नों की साधना ) , कद्रo - विनता को द्यावापृथिवी का रूप मानने की , पुराणों की सत्यवान् - सावित्री कथा को सावित्रेष्टि का प्रतीक मानने पर विचार करने की , प्राण - अपान को व मन की पराक् और अर्वाक् गति को पुराण में वर्णित अश्व युगलों के प्रतीक से समझने की , वैदिक श्यावाश्व और पौराणिक श्यामकर्ण अश्व में क्या कोई समानता देखी जा सकती है - ऐसे संकेत देने की डां. फतहसिंह की जो टिप्पणी है , वह वैदिक विज्ञान के साथ पौराणिक अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि से मूल्यवान् मार्गदर्शन देती है । - - - - - -इस अनुक्रमणिका में समस्त महत्वपूर्ण पुराणों के साथ - साथ रामायण , महाभारत , लक्ष्मीनारायण संहिता और कथासरित्सागर के भी सन्दर्भ - निर्देश हैं । स्पष्ट है कि यह कार्य इतने विपुल श्रम और समय की अपेक्षा करता है कि सदियों तक ऐसा संकलन होते रहने पर भी इसका ओर - छोर न मिले क्योंकि हमारा वैदिक वाङ्मय इतना विशाल है कि हजारों वर्षों के कालखण्ड में व्याप्त होने के कारण बहुत सा अब तक अनुपलब्ध है । पुराण साहित्य भी उतना ही ( उससे भी अधिक ) विराट् है । इसके साथ तंत्र वाङ्मय ( आगम ) और अन्य लौकिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी करना हो , तो यह कार्य मानव साध्य ही नहीं रहता । अतः ऐसा प्रत्येक उपक्रम पूर्णता का दावा तो नहीं कर सकता किन्तु महत्वपूर्ण पहल करके इतिहास की सिकता पर अपने पदांक अवश्य छोड सकता है । इस दृष्टि से ऐसे सराहनीय प्रयासों का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए । ऐसे मार्गदर्शक कोषों से वैदिक वाङ्मय के मूल उत्सों का पुराणों और लौकिक साहित्य की धाराओं में आकर बढने - घटने, बदलने आदि का तुलनात्मक अध्ययन करने की दिशा में जो प्रेरणा मिलेगी , उससे आगे कुछ अन्य विद्वान् भी ऐसे कार्यों में प्रवृत्त होंगे, ऐसी आशा की जानी चाहिए । कुछ वैदिक संज्ञाएं किस प्रकार बदल गई , इसके उदाहरणस्वरूप अहिर्बुध्न्य शब्द लिया जा सकता है , जो एक देव - संज्ञा बन गई है । इस कोष में भी वैसी ही प्रविष्टि है और संदर्भ - संकेत दिए गए हैं । और तो और , एक अहिर्बुध्न्य संहिता भी उपलब्ध है । लगता है मूलतः ये दो शब्द थे अहि: बुध्निय - तलहटी में रहने वाला अहि । वेदों में स्पष्ट उल्लेख है - अहे बुध्न्य मंत्रं मे गोपाय । आश्चर्य की बात यह है कि यह बुध्निय अहि अहिर्बुध्न्यः बनकर एक नाम बन गया । पुरानी पहचान मिट गई । इस कोष में इसका निर्वचन किसी ज्योvतिष ग्रन्थ के संदर्भ में बुध रूपी बोध प्राप्ति के मार्ग में स्थापित किया जा सकने वाला अहि कहकर तो दे दिया गया है । अFछा होता बुध्न्य अहि निर्वचन स्पष्ट ही दे दिया जाता । जैसा ऊपर उल्लेख है , इस प्रकार के अध्ययनों का कोई ओर - छोर नहीं है , अतः पूर्णता तो ऐसे प्रयत्नों को प्राvत्साहित, समर्थित और पूरक अध्ययनों से उपबृंहित करने से ही आएगी । वैदिक अवधारणाओं का पुराण , दर्शन तथा अन्य शास्त्रीय परम्पराओं की समन्वित सनातनता में अध्ययन करने का जो क्रम मधुसूदन ओझा, गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी आदि ने चलाया था , उसे ऐसे प्रयत्न बखूबी आगे बढाते हैं । इस ग्रन्थ की वैदिक टिप्पणियों में डां. फतहसिंह का अभिगम पूर्णतः शोधात्मक, तथ्यपरक एवं वस्तुनिष्ठ है । प्रमाण और सन्दर्भ देकर वे अपनी बात कहते हैं और जहां विशेष अध्ययन अपेक्षित है , वहां अपना तर्कशुद्ध अनुमान यह कहकर उल्लिखित कर देते हैं कि इस दिशा में आगे अनुसंधान किया जा सकता है । कलानाथ शास्त्री राजस्थान पत्रिका १६ - ६- १९९६ |