पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Riksha to Ekaparnaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Riksha - Rina ( Uushmaa/heat, Riksha/constellation, Rigveda, Richeeka, Rijeesha/left-over, Rina/debt etc.)

Rinamochana - Ritu ( Rita/apparent - truth, Ritadhwaja, Ritambhara, Ritawaaka, Ritu/season etc. )

Ritukulyaa - Rishi  (  Rituparna, Ritvija/preist, Ribhu, Rishabha, Rishi etc.)

Rishika - Ekaparnaa (  Rishyamuuka, Ekadanta, Ekalavya etc.)

 

 

 

The story of Richeeka in puraanic texts is one of the most complicated stories from facts point of view. Richeeka is father of Shunahshepa whose story is well known in vedic and puraanic texts. His other name which appears in texts is Ajeegarta. He makes efforts to marry Satyavati, the daughter of Gaadhi. And to marry her, he has to make a payment of special horses. From Satyavati, he begets 3 sons, the eldest of whom is Jamadagni or Shunah Laanguula. The middle one is Shunah – shepa. Richeeka is prepared to sacrifice his middle son for the sake of getting few cows. He is the grandfather of Parashurama, who has got warrior qualities. The contents of this website try to unfold the mystery of this in context with vedic rituals. What is a cow? It is said that an object which can reflect(in a gross way of thinking) sun rays is cow. This earth is also called cow because it also reflects. What is horse? It is still not much clear. But it is certain that horse is symbolic of pervading in the world, and pervading in no time. From the whole story, it seems clear that Richeeka is interested in spreading his sphere of penances from vertical to horizontal, from jungle to the real society. That is why he begets a grandson who has got warior qualities. His wife Satyavati may mean that part of nature which does not fully lies in truth. The closest parallel of Richeek word in Vedas may be Rijeekam, which means linear. Therefore, the meaning of word Richeeka may be something between linearity and curvature of modern sciences. If one goes according to modern sciences, it will be difficult to find something linear in this world. Everything, even the rays of sun, are curved. The transition from brahmanical to warrior like qualities has been called curvature in Richeeka story. If the word meaning of Richeeka is derived from richa, or rigvedic mantra, then Satyavati, the wife o Richeeka, may be said to be the inner voice which gets distorted while coming down to the lowest outer level. Richa of Rigveda is said to be connected with giving a pre-guess of an event which has not yet taken place . The story of Richeeka points out how much efforts one has to make to keep his inner voice intact to the outermost level. It is hoped that unfoldment of the mysteries of Richeeka will help understanding the episode of Shunahshepa in Rigveda better.

ऋचीक

टिप्पणी : वैदिक साहित्य में ऋचीक शब्द प्रकट नहीं होता, वहां गो - ऋजीक, आविर्ऋजीक, भा - ऋजीक शब्द अवश्य प्रकट हुए हैं । इसके अतिरिक्त आjर्जीक, आर्जीका अर्थात् ऋजीक से उत्पन्न हुए, शब्द भी प्रकट होते हैं । अतः यह एक पहेली है कि पुराणकार को ऋचीक शब्द का निर्माण करने की आवश्यकता क्यों पडी । ऋचीक की पितामही तथा आप्रवानः की भार्या का नाम भी ऋची है । ऋचीक शब्द से ऐसा लगता है कि यह ऋग्वेद की ऋचाओं से सम्बन्धित हो सकता है । ऋचाओं का कार्य महदुक्थ रूपी रस समुद्र का निर्माण करना है ( शतपथ ब्राह्मण ९.५.२.१२, १०.१.१.५, १०.४.१.१३, १०.५.२.१) । उक्थ शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि सोए हुए प्राणों को जगाना और फिर उन्हें जगाए रखना उक्थ कहलाता है । प्राण उक् हैं और उनके लिए जो भोजन संस्कृत किया गया है, वह थम् है । अपना - अपना भोजन प्राप्त होने पर ही विभिन्न प्रकार के प्राण स्थाई रूप से जागे रह सकते हैं । नाम का कार्य भी सोए हुए प्राणों को जगाना होता है और महदुक्थ या ऋचा के बारे में कहा गया है कि यह नाम और रूप दोनों की समृद्धि के लिए है ( ऐतरेय ब्राह्मण १.४, २.२ ) । डा. लक्ष्मीश्वर झा का कहना है कि महदुक्थ इस प्रकार है जैसे एक मूर्तिकार मूर्ति का निर्माण करता है, अव्यक्त को रूप प्रदान करता है । इसके अतिरिक्त, सार्वत्रिक रूप से यह कहा गया है कि ऋचाएं भू लोक से, अग्नि से सम्बन्धित हैं जबकि साम द्यु लोक से, सूर्य से । ऋक् और साम के बीच एक सन्धि होती है । वह सन्धि अन्तरिक्ष लोक है जो यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करता है । दीक्षा के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.१.४.२, ३.२.१.५, तैत्तिरीय संहिता ६.१.३.१ आदि में सार्वत्रिक रूप से कहा गया है कि कृष्णाजिन चर्म में एक तो काले लोम होते हैं, एक श्वेत होते हैं । यह दोनों ऋक् और साम के प्रतीक हैं । इन दोनों की सन्धि रूप बभ्रु लोम होते हैं जो यजुर्वेद का प्रतीक हैं । दीक्षा के समय उन्हें स्पर्श करने का निर्देश है । यह सन्धि क्या है, यह जानना ऋचीक की कथा के संदर्भ में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । तैत्तिरीय संहिता ७.५.३.२ का कथन है कि सब कामों की प्राप्ति के लिए सन्धि/गौ का दोहन करे । डा. लक्ष्मीश्वर झा का भी यही कहना है कि भौतिक जगत में जहां जहां सूर्य की किरणें ऐसे स्थान पर आती हैं जो सन्धि स्थान हो, जहां से वे परावर्तित होने लगें, वह किरणें गौ कहलाती हैं । पृथिवी को भी गौ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उससे सूर्य की किरणें परावर्तित होती हैं । यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पौराणिक कथाओं में ऋचीक ऋषि गायों की प्राप्ति के लिए कुछ भी कर सकता है - अपने पुत्र को बेच सकता है, उसका सिर काटने को उद्धत हो सकता है आदि ( यह उल्लेखनीय है कि गौ शब्द की व्युत्पत्ति गम् - गतौ धातु से होती है । गम् धातु गति, गच्छति और गम्यते अनेन, ज्ञान दोनों अर्थ में प्रयुक्त होती है ) । आगे यह जानने योग्य है कि भौतिक और आध्यात्मिक जगत में सन्धि का निर्माण कहां - कहां और कैसे होता है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६.४.५ का कथन है कि अह और रात्रि दो समुद्रों के समान हैं और इनके बीज सन्धि गाध प्रतिष्ठा है, तीर्थ है जहां इन दोनों समुद्रों में स्नान किया जा सकता है । यहां गाध प्रतिष्ठा का उल्लेख फिर ऋचीक ऋषि की कथा की ओर इंगित करता है जहां वह गाधि की कन्या सत्यवती को पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है । अहोरात्र की सन्धि के पश्चात् दर्शपूर्ण मास रूपी सन्धि आती है और यह उल्लेखनीय है कि अहोरात्र रूपी सन्धि में अग्निहोत्र केवल यजुर्वेद द्वारा कल्पित होता है, जबकि दर्शपूर्णमास में ऋग्वेद और यजुर्वेद दोनों की प्रतिष्ठा रहती है । गाध का अर्थ होता है उथला, कम गहरा, जहां घुस कर सुविधापूर्वक स्नान किया जा सके । गाध शब्द को भी अच्छी प्रकार समझ लेना होगा क्योंकि इसे सन्धि के साथ जोडा गया है और वैदिक साहित्य में सन्धि को बताने के लिए गाध प्रतिष्ठा शब्द का भी उपयोग किया गया है । गवामयन सत्र के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.२.१.१ तथा गोपथ ब्राह्मण १.५.२ का कथन है कि २४वां दिन गाध प्रतिष्ठा है, अभिजित् दिन गाध प्रतिष्ठा है, विश्वजित् गाध प्रतिष्ठा है, महाव्रत गाध प्रतिष्ठा है आदि । इस कथन को समझने के लिए गवामयन सत्र की प्रकृति को समझ लेना होगा । इस यज्ञ में पहले २४ दिन ६-६ दिनों वाले ४ अभिप्लव नामक कृत्यों का सम्पादन किया जाता है और इसके पश्चात् ६ दिन का पृष्ठ~य षडह नामक कृत्य सम्पन्न होता है । इस प्रकार एक मास पूरा होता है । इस एक मास के कृत्यों की पुनरावृत्ति ६ मासों तक की जाती है । ६ मास पूर्ण होने पर विषुवत~ नामक एक दिन के मुख्य कृत्य का सम्पादन किया जाता है । इसके पश्चात् फिर अगले ६ मासों में यही कृत्य उल्टे क्रम से सम्पन्न किए जाते हैं । वर्ष के अन्त में महाव्रत नामक एक दिन के कृत्य का सम्पादन होता है । विषुवत~ अह से तीन या चार दिन पूर्व अभिजित् नामक एक दिवसीय कृत्य सम्पन्न होता है और विषुवत~ अह के तीन या चार दिन पश्चात् विश्वजित् नामक एक दिवसीय कृत्य का सम्पादन किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण १२.२.१.१ के कथन में २४वें अह, अभिजित् आदि कम से कम ४ गाध प्रतिष्ठाओं का उल्लेख है और यह स्वाभाविक ही है कि यह गाध प्रतिष्ठाएं अलग - अलग प्रकार की होंगी । २४वें दिन प्रतिदिन सायंकाल होने वाले उक्थ नामक कृत्य का लोप कर दिया जाता है । कहा गया है कि जो २४दिन अभिप्लव कृत्य के हैं, यह तो गहरा समुद्र है जिसमें देवता ही स्नान कर सकते हैं । इससे आगे पृष्ठ कहे जाने वाले ६ दिन मर्त्य स्तर के विकास के लिए हैं । और इस पृष्ठ नामक ६ दिवसीय कृत्य के छठे दिन कुछ विचित्र प्रकार के मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है जिन्हें सामान्य रूप से गाथाएं, प्रगाथाएं नाम दिया गया है । यह नाराशंसी गाथाएं हो सकती है, वालखिल्य ऋचाएं हो सकती हैं इत्यादि । इन गाथाओं को ऋत्विजों द्वारा जिस प्रकार विशेष ढंग से उच्चारण किया जाता है, और जिस प्रकार ऋचाओं को तोड मरोड कर इनकी रचना की जाती है, उससे प्रतीत होता है कि ऋत्विज गण भावातिरेक की एक ऐसी स्थिति में हैं जहां बोलना भी कठिन होता है, उल्टा - सुल्टा बोला जाता है । डा. लक्ष्मीश्वर झा का कथन है कि गाथा लौकिक वाणी को कहते हैं । वास्तविक यज्ञ की अवधि में गाथा का उच्चारण नहीं किया जा सकता, केवल ऋचाओं आदि का ही उच्चारण किया जा सकता है । अतः यह कहा जा सकता है कि २४वें दिन जो स्थिति गाध प्रतिष्ठा के रूप में प्राप्त हुई थी, ३०वें दिन उसकी चरम परिणति गाथाओं के रूप में होती है और पुराणों का ऋचीक ऋषि इन्हीं गाथाओं रूपी सत्यवती को पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है । लेकिन पुराणों में गाधि एक शर्त जोड देता है कि पहले एक हजार श्यामकर्ण अश्व लाओ, फिर सत्यवती को पाओ । और ऋचीक ऋषि एक हजार अश्व प्राप्त करने के लिए ऋग्वेद ९.११२.४ से आरम्भ होने वाले? सूक्त अश्वो वोड~हा सुखं रथं इत्यादि का जप करके इन अश्वों को प्राप्त करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सत्यवती वाक् को प्राप्त करने के लिए, धेना या गौ को प्राप्त करने के लिए अश्व के स्तर पर बृहद् स्तर पर साधना करना, स्वयं को शुद्ध करना आवश्यक है । प्रश्न यह है कि पुराणकार को ऋचीक के माध्यम से इस कथा को गढने की आवश्यकता क्यों पडी ? अनुमान यह है कि ऋग्वेद की एक ऋचा ३.५८.४ में गोऋजीक मधु का उल्लेख है । यास्क ने भा ऋजीकम् का अर्थ किया है भा प्रसिद्धम्, जो भा सिद्ध हो, संस्कृत हो । इसी प्रकार से गोऋजीकम् का अर्थ गो द्वारा संस्कृत किया जा सकता है । लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि गौ दुग्ध देती है, मधु नहीं देती । मधु विद्या का सम्पादन तो बृहदारण्यक उपनिषद २.५.१ आदि के अनुसार अश्व विद्या से ही होता है जहां कहा गया है कि यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु है और सब भूत पृथिवी के लिए मधु हैं, ऐसी स्थिति मधु विद्या के अन्तर्गत आती है । अतः यह संभव है कि इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए ही पुराणकार ने ऋचीक की कथा में अश्वों का समावेश किया हो । पहले अश्व ऋजीकम् होगा, उसके पश्चात् गो ऋजीकम् हो सकता है । अश्वमेध से तात्पर्य होता है अपने अन्दर - बाहर सब जगह अपने शत्रुओं को, दोषों को समाप्त कर देना, पूर्णतः शुद्ध स्थिति को प्राप्त हो जाना । अगला प्रश्न यह उठता है कि पुराणकार को गो ऋजीकम् शब्द के बदले ऋचीक शब्द का निर्माण करने की आवश्यकता क्यों पडी ? और क्या यह दोनों शब्द वास्तव में परस्पर सम्बन्धित हैं भी? ऋजीक शब्द ऋज या ऋजि धातुओं से निष्पन्न हुआ है । ऋजि धातु प्रसाधने अर्थ में और ऋजु अर्थ में ली जाती है । ऋज धातु गत्यर्थक है । ऋचीक की कथा में सत्यवती द्वारा चरुओं का विपर्यास किए जाने और ब्राह्मण के क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न होने की सम्भावना पर सत्यवती अपने पति से अनुरोध करती है कि उसे अनृजु पुत्र नहीं चाहिए, ऋजु पुत्र चाहिए । इसका अर्थ यह है कि ऋजीक शब्द जिन अर्थों की ओर संकेत कर रहा है, उन अर्थों का समावेश किसी न किसी प्रकार से ऋचीक की कथा में भी किया गया है । ऋजु - अनृजु के संदर्भ में आधुनिक भौतिक विज्ञान की यह मान्यता उल्लेखनीय है कि यह सारा जगत अनृजु या वक्र है । दिल्ली से डा. एस.टी. लक्ष्मीकुमार ने सूचना दी है कि भौतिक विज्ञान में प्रयोगों द्वारा ऐसा पाया गया है कि किसी नक्षत्र या तारे से पृथिवी पर आने वाला प्रकाश ऋजु नहीं रहता, अपितु बीच में स्थित सूर्य उन किरणों को अपनी ओर कुछ आकर्षित कर लेता है और इस कारण वह किरणें वक्रित होकर पृथिवी तक पहुंचती हैं । इस कारण किसी तारे की पृथिवी से जितनी दूरी है, वह आभासी रूप में वास्तविकता से अधिक हो जाती है । और फिर अनुमान लगाया गया है कि यदि इस संदर्भ में यह स्थिति है तो यह सारा भौतिक जगत ही अनृजु, वक्र होना चाहिए । इन्दौर से डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने सूचित किया है कि यह सारी प्रकृति, भौतिक जगत द्यूत, चांस के सिद्धान्त पर कार्य करता है । अतः यह कहा जा सकता है कि जहां - जहां भी प्रकृति होगी, द्यूत का सिद्धान्त लागू होगा, वहां - वहां अनृजुता, वक्रता भी होगी । शतपथ ब्राह्मण १४.१.२.२२ का कथन है कि केवल ऊपर का लोक ही ऋजु है, सत्य ही ऋजु  है । तो क्या ऋचीक या ऋजीक से तात्पर्य दोनों लोकों को ऋजु बनाने से है ? तैत्तिरीय आरण्यक ५.३.७ में इस पृथिवी के भी ऋजु होने की संभावना व्यक्त की गई है । ऐतरेय ब्राह्मण में २ स्थानों पर एक ही वाक्य की पुनरावृत्ति की गई है कि यत् कर्म क्रियमाणमृगभिवदति, अर्थात् वास्तविक कर्म वह है जिसको करने से पूर्व ही ऋचा उसका स्वरूप घोषित कर दे । यह निचले लोक को ऋजु बनाने की ओर पहला कदम होगा । अध्यात्म में ऋजु और अनृजु का अर्थ ऋचीक की वर्तमान कथा के अनुसार ब्राह्मणत्व और क्षत्रियत्व लिया गया है । क्षत्रियत्व में अपने शत्रुओं का नाश करने की आवश्यकता पडती है, ब्राह्मणत्व में सारा जगत मित्र हो जाता है । ऋग्वेद में सोम के लिए, मधु के लिए गो ऋजीकम् शब्द प्रकट हुआ है ( ऋग्वेद ३.५८.४, ६.२३.७, ७.२१.१ ) तथा अग्नि के लिए भा ऋजीकम् प्रकट हुआ है ( ऋग्वेद १.४४.३, ३.१.१२, ३.१.१४, १०.१२.२ ), लेकिन अश्व ऋजीकम् नहीं कहा गया है ।

प्रश्न यह है कि पुराणों का ऋचीक ऋषि ऋग्वेद से सम्बन्धित है या यजुर्वेद से ?अध्वर्यु शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि गौ केवल अपने अध्वर्यु रूपी वत्स के लिए ही दुग्ध देती है । अध्वर्यु यज्ञ को अध्वर, शत्रुओं से रहित, हिंसा से रहित बनाता है और यज्ञ में यजुर्वेद से सम्बद्ध ऋत्विजों में मुख्य ऋत्विज है । यदि भृगु - वंशी ऋचीक के रूप में विचार किया जाए तो पुराणों में यज्ञों में कहीं पर तो भृगु को होता ऋत्विज बनाया गया है, कहीं अध्वर्यु । अतः इस आधार पर ऋचीक की प्रकृति का निर्णय नहीं किया जा सकता । ऋचीक शब्द तो ऋचा की ओर संकेत देता है लेकिन वह पाना चाहता है गाधि - कन्या सत्यवती को और गाध: प्रतिष्ठा सन्धि है । यह सन्धि अग्निहोत्र की भांति शुद्ध रूप से यजुर्वेदीय हो सकती है, या दर्शपूर्णमास की भांति यजुर्वेद और ऋग्वेद का मिश्रण हो सकती है, या महाव्रत की भांति तीनों वेदों का मिश्रण हो सकती है । यह भी संभव है कि ऋचीक की कथा में इन सभी संधियों का क्रमशः समावेश किया गया हो क्योंकि महाव्रत नाम सन्धि उत्सव में ब्राह्मण यजमान द्वारा धारित क्षत्रियत्व का विशेष महत्त्व होता है और वह राजा का रूप धारण कर तीर से निशाना साधता है । क्या ऋचीक के पौत्र परशुराम के रूप में इसी क्षत्रियत्व को दर्शाया गया है, यह विचारणीय है । ऋचीक का पिता और्व तो स-गर, विष सहित का पालन करता है, उसे मनोमय कोश के स्तर पर उपस्थित दोषों से कोई लेना - देना नहीं है, यद्यपि उसका जन्म ऊरु, विस्तीर्ण स्थिति से हुआ है और वह जन्म लेते ही अपने तेज से हैहय क्षत्रियों का नाश कर देता है ।

ऋचीक ऋषि के तीन पुत्रों के नाम क्रमशः शुनःलाङ्ग®ल या जमदग्नि, शुनःशेप और शुनःपुच्छ कहे गए हैं । पहले २ पुत्रों का तो प्रचुरता से वर्णन मिलता है, लेकिन तीसरे का नहीं । शुनम् को विद्वानों ने विज्ञानमय कोश के समुद्र की स्थिति, शान्त अवस्था माना है और शेप इस विज्ञानमय कोश की स्थिति से नीचे मनोमय कोश की ओर क्षरण की स्थिति हो सकती है ( उदाहरण के लिए द्रष्टव्य वैदिक कोश, रचयिता : पं. चन्द्रशेसर उपाध्याय व अनिल कुमार उपाध्याय, नाग प्रकाशक, दिल्ली, १९९५ ) । ऋग्वेद ९.११२.४ की ऋचा में, जिसका ऋचीक ऋषि जप करता है, शेप को रोमण्वन्त भेद द्वय की कामना करने वाला कहा गया है । इसका अर्थ होगा कि वह २ स्तरों पर रोमांच की कामना करने वाला है । ऋचीक ऋषि गायों के बदले शुनःशेप की बलि देने को क्यों तैयार हो जाता है, यह विचारणीय है । तीसरा पुत्र शुनःपुच्छ माता को प्रिय है, अतः उसकी बलि नहीं दी जा सकती । माता सत्यवती वाक् रूप है और पुच्छ को प्रतिष्ठा कहा गया है । मयूर की पुच्छ विशेष रूप से प्रसिद्ध है । चूंकि मयूर सुने हुए मन्त्रों की प्रतिध्वनि के लिए प्रसिद्ध है, अतः हो सकता है कि पुच्छ भी विशेष रूप से प्रतिध्वनि का कार्य करने की प्रतीक हो । इसके विपरीत शुनःलाङ्ग®ल/लाङ्गल या हल है जो निचले कोशों का कर्षण करता है ।

प्रथम लेखन : २६-७-२००२ई.