पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Riksha to Ekaparnaa) Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar Riksha - Rina ( Uushmaa/heat, Riksha/constellation, Rigveda, Richeeka, Rijeesha/left-over, Rina/debt etc.) Rinamochana - Ritu ( Rita/apparent - truth, Ritadhwaja, Ritambhara, Ritawaaka, Ritu/season etc. ) Ritukulyaa - Rishi ( Rituparna, Ritvija/preist, Ribhu, Rishabha, Rishi etc.) Rishika - Ekaparnaa ( Rishyamuuka, Ekadanta, Ekalavya etc.)
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Every word of vedas is full of mystery. The unravelling of the mystical meaning has become somewhat easier with the advancement of principles of modern science. Take for example the word Rina or debt. It is easier now to understand this word in terms of increase in entropy, or according to the second law of thermodynamics. According to this law, the entropy or the degree of disorder of this world is increasing. In simple words, energy in this cosmos can not be destroyed, it can only be changed from one form to another.But there is a second factor too.Until the steam in a steam engine is confined to a container, any work can be taken from it. But as soon as it is released in air, it becomes useless.Though there is no change in energy, but the disorder has increased. This gives us a clue to understand the word Rina in vedas. It seems that in vedic literature, the word RINA is connected with gradual death. All of us are gradually proceeding towards that. The question is how to prevent that. One solution seems to be to let the consciousness be free from the bondage of gross matter part of individuality, just like Suparni freed herself from the bondage of Kadru in Puraanic mythology.Let us give chance for development of consciousness in gross matter, development of higher and higher stages of consciousness.The second solution seems to be to let us free ourselves from taking debt from gods, rishis and pitris or manes. Puraanic writers have suggested that let there be neither a donor nor an acceptor. Let both enjoy equally.This concept can be understood better with the advancement of technology in information communication. A single photon is somehow shared between two centers and whatever happens at one center, is automatically transferred to another. At the level of consciousness, we can say that let us feel the happiness and sorrow of others.There is an apparently strange mantra which is recited while accepting Dakshina from yajamana. The mantra says that neither there is donor nor acceptor etc. This mantra can be understood in the light of the above discussion.This website gives puraanic contexts of RINA or debt, comments and quotations from vedic texts.
ऋण टिप्पणी : सामान्य व्यवहार की भाषा में ऋण का अर्थ है - कर्ज, जो धनराशि अथवा अन्य कोई वस्तु किसी रूप में किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति से ली जाती है और जिसे समयानुसार लौटाना चाहिए । नहीं लौटाये जाने पर ऋणग्राही ऋणदाता का ऋणी ( कर्जदार ) हो जाता है । अग्निपुराण तथा विष्णुधर्मोत्तर पुराण में उपर्युक्त प्रकार के ऋण से सम्बन्धित व्यवहार - विचार का वर्णन किया गया है । परन्तु आज के युग के मनीषियों का दर्शन तथा आज का भौतिक विज्ञान हमें वैदिक ऋण शब्द को और अधिक समझने के लिए व्यापक आधार प्रदान करता है । ऋग्वेद २.२८.९ में वरुण से प्रार्थना की गई है कि वह ऋणों को दूर करे । बहुत सी उषाएं अभी प्रकट होने से बची हुई हैं । हे वरुण, उनमें हमारे जीवन को अनुशासित करो, जीवन की रक्षा करो । ऋग्वेद १०.१२७.७ में कहा गया है कि रात्रि का तम हमें हानि न पहुंचाए । हे उषा, उसे ऋण की भांति दूर करो । ऋग्वेद ४.२३.७ में भी ऋण दूर करने वाले उग्र इन्द्र के साथ किसी प्रकार से अज्ञात उषाओं को जोडा गया है । ऋग्वेद ५.३०.१४ में ऋणंचय राजा के लिए पाप वाली रात्रि में उषा प्रकट होती है । उषा शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि जड पदार्थ में जीवन का प्रकट होना सबसे पहली उषा का प्रकट होना है । फिर जीवन में चेतना शक्ति जितनी प्रबल होगी, उसको प्रकट करने वाली उषा भी उतनी ही विकसित होगी । सामान्य प्रकृति के स्तर पर हम देख रहे हैं कि हमारी पृथिवी पर सूर्य की किरणों से जीवन का कितना विकास हो रहा है । पृथिवी का कण - कण जीवन पाने के लिए लालायित है । यह कहा जा सकता है कि पृथिवी पर जीवन के इस विकास की चरम सीमा मनुष्य में प्रकट हुई है । और वैदिक तथा पौराणिक साहित्य इस मनुष्य से भी आगे चेतना के विकास की संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं । श्री अरविन्द ने अपने लेखन में इसको सुपर ह्यूमन, उच्चतर मानव का नाम दिया है । चेतना के आगे विकास में हमारे पाप, अज्ञान में किए गए कर्म बाधक बनते हैं । चेतना का आगे विकास तभी संभव है जब वर्तमान में उपलब्ध चेतना पर से अनावश्यक कार्यों का बोझ हटा दिया जाए । अभी स्थिति यह है कि जितनी चेतना हमें नैसर्गिक रूप में प्राप्त हुई है, हमारे अनुचित आचार - विचार के कारण वह न्यूनता की ओर बढ रही है, मृत्यु की ओर बढ रही है, ऋणात्मकता की ओर बढ रही है । यही नहीं, हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पृथिवी पर जीवन के रूप में जितनी भी चेतना का विकास होता है, वह सब मृत्यु की ओर उन्मुख है, शाश्वत नहीं है । पुराणों में इस ऋणात्मकता को समाप्त करने के लिए मुख्य रूप से तीन और गौण रूप से चार या पांच ऋणों को चुकाने के उल्लेख आते हैं । मुख्य तीन ऋणों में देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋणों के उल्लेख आते हैं और किन्हीं स्थानों पर इनके अतिरिक्त मनुष्य ऋण या अतिथि ऋण तथा आत्म ऋण आदि के भी उल्लेख हैं । और विशेष तथ्य यह है कि पुराणकारों ने इस तथ्य की वैदिक साहित्य से नकल करके ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया है, उसको काटने - छांटने का, और अधिक समझाने का प्रयास ही नहीं किया है । इसका अर्थ है कि उन्होंने इस कथन के गूढ तथ्यों को प्रत्यक्ष रूप से और अधिक स्पष्ट करना उचित नहीं समझा है । वैदिक साहित्य में यह कथन आलम्भनीय पशु के अङ्गों के अवदान के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ६.३.१०.५, शतपथ ब्राह्मण १.२.२.१ आदि में प्राप्त होता है । अथर्ववेद ६.११७.३ में भी इसका मूल खोजा जा सकता है जहां देवयान और पितृयान लोकों के मार्ग को अनृण बनाने की प्रार्थना की गई है । यज्ञ में पशु का वध करके उसके मन, १० प्राणों और अन्य अङ्गों की देवों हेतु अग्नि में आहुति देने की कल्पना की गई है । इसे अवदान नाम दिया गया है, अर्थात् जो कुछ हमने देवों से ऋण लिया था, उसका एक स्वल्प अंश हम वापस लौटा रहे हैं । सभी अङ्ग आहुति देने लायक नहीं होते, हृदय आदि कुछ विशेष अङ्गों से ही अंश ग्रहण करके उनकी आहुति दी जाती है । इस संदर्भ में कहा गया है कि पूरे अङ्ग की आहुति न दे, अपितु यावन् मात्र की, यव मात्र की आहुति दे । सामान्य रूप से यव का अर्थ अल्प लिया जाता है । लेकिन डा. फतहसिहं की विचारधारा में यव २ भागों के जुडने से बनता है । अतः यह कहा जा सकता है कि किसी अङ्ग के उतने अंश की ही आहुति देनी है जिसकी चेतना उच्चतर चेतना से, समष्टि चेतना से, देवों की चेतना से जुड चुकी हो । ऐसा करने से ऋण से मुक्ति होती है । लेकिन अवदान के अतिरिक्त जो अङ्ग शेष बचा रहता है, और वह अङ्ग जिनसे अवदान लिया ही नहीं जाता, उनका क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है । तैत्तिरीय संहिता ६.३.१०.४ में कहा गया है कि पहले हृदय से अवदान लिया जाता है, फिर जिह्वा से, फिर वक्ष से । इसका कारण यह है कि जो हृदय में आता है, वह बाद में जिह्वा बोलती है और जो जिह्वा बोलती है, वह उर/वक्ष के द्वारा बोला जाता है । एक संभावना यह है कि तीन अवदानों के रूप में यहां देवऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण छिपे हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.२ में ऋषि ऋण के संदर्भ में अनुब्रूहि शब्द का उल्लेख आता है । अतः तैत्तिरीय संहिता में जो जिह्वा द्वारा बोलने का उल्लेख है, वह ऋषियों के लिए अवदान से सम्बन्धित हो सकता है । ऋषि का कार्य श्रुति को, श्रुत ज्ञान को स्मृति में उतारना, उसका अनुवाचन करना हो सकता है । फिर तीसरे स्तर पर वह वक्ष पर आ जाता है । क्या वक्ष पितरों के ऋणों से सम्बन्धित हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद २.२४.१३ में ऋण को वश के अनु रखने की कामना की गई है । कर्मकाण्ड में वशा गौ उसे कहा जाता है जो वन्ध्या, गर्भ न धारण करने वाली गौ होती है । अन्यथा वश को शव से विपरीत अर्थों में माना जा सकता है । शव - जिसमें चेतना का विकास नहीं हुआ है । वक्ष को डा. फतहसिंह के अनुसार अङ्ग्रेजी के वैक्सिंग एंड वेनिंग, वृद्धि और ह्रास से भी समझने का प्रयत्न किया जा सकता है । पितरों के ऋण से मुक्त होने के लिए तन्तु का विस्तार या पुत्र और श्राद्ध, यह दो अपेक्षित हैं । तैत्तिरीय संहिता के कथन को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि श्रुत ज्ञान की प्रतिध्वनि तीन स्तरों पर होनी चाहिए, यदि ऐसा होता है तो वह तीन ऋणों से मुक्त हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.७ में ४ अवदानों की व्याख्या यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली के आधार पर की गई है । ४ अवदानों की व्याख्या अनुवाक्या, याज्या, वषट्कार व देव विशेष को दी जाने वाली हवि के रूप में की गई है । ब्रह्माण्ड के रूपक में द्युलोक या द्यौ या असौ की तृप्ति अनुवाक्या मन्त्र बोलने से होती है, पृथिवी या इयं की तृप्ति याज्या द्वारा होती है, सूर्य का ६ ऋतुओं से मिलन वषट्कार कहलाता है । अतः अवदान का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह निश्चय करना शेष है । अथर्ववेद ६.११८.१ में उग्रंपश्या और उग्रजिता अप्सराओं से ऋण दूर करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद २.२३.११, ४.२३.७ व ८.६१.१२ में भी उग्र को ऋण को समाप्त करने वाला कहा गया है । इस संदर्भ में उग्र शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है जहां उग्र को शव अवस्था से आगे, जड तत्त्व में, भूतों में चेतना उत्पन्न करने वाला कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१६ में कद्रू और सुपर्णी का आख्यान है । इस संदर्भ में कहा गया है कि पुरुष जन्म लेते ही मृत्यु का ऋणी होता है । जब वह इस प्रकार यजन करता है जैसे सुपर्णी ने देवों के लिए स्वयं का क्रय किया, तब वह मृत्यु से स्वयं का क्रय करता है । डा. फतहसिंह के अनुसार कद्रू स्थिर तत्त्व है जबकि सुपर्णी गतिमान्, चेतनावान् पक्ष है । सामान्य स्थिति में चेतना पक्ष स्थिर, जड तत्त्व का दास होता है, वैसे ही जैसे आख्यान में सुपर्णी कद्रू की दासी बन गई थी । इस स्थिति से उबरने का एकमात्र उपाय यह है कि सोम पर अधिकार किया जाए और उससे देवों का यजन किया जाए । ऋग्वेद ८.३२.१६ के अनुसार सोमपान करने वालों, जैसे इन्द्र पर ब्रह्म का ऋण नहीं चढता । ऋग्वेद २.२८.९ में ऋण के संदर्भ में अन्यकृत भोजन का निषेध है । ऋग्वेद ९.१०८.१२-१३ सूक्त ऋणंचय ऋषि तथा पवमान सोम देवता के हैं । इनमें ९.१०८.१२ में अमर्त्य सोम द्वारा ज्योति द्वारा तम का तापन करने का उल्लेख है । ऋग्वेद २.२७.४ में आदित्य को, ४.२३.७ तथा १०.८९.८ में इन्द्र को, ९.४७.२ में सोम को, २.२३.११ तथा २.२३.१७ में बृहस्पति को, १.८७.४ में मरुद्गण को, तैत्तिरीय आरण्यक २.६.१-२ तथा अथर्ववेद ६.११९.१ में वैश्वानर को तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.१२.३ में अग्नि को ऋण मुक्त करने वाले देवों के रूप में स्मरण किया गया है । इनके लिए प्रायः ऋणया शब्द का प्रयोग किया गया है । यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में ऋणदाता व ऋणग्राही के लिए उत्तमर्ण व अधमर्ण शब्दों का प्रयोग हुआ है । ब्रह्म पुराण में ऋण को श्रौत व स्मार्त भागों में विभक्त किया गया है । ऋण का यह विभाजन प्रत्यक्ष रूप में अन्यत्र नहीं मिलता । हो सकता है कि पुराणकार ने ऋषि ऋण और पितृऋण को यह नाम दिए हों । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.५.५ आदि में दक्षिणा के दाता व प्रतिगृहीता के संदर्भ में प्रश्न किया गया है कि दक्षिणा या दान किस प्रकार दिया - लिया जाए कि प्रतिगृहीता दाता का ऋणी न बन पाए । इसके उपाय के रूप में जो मन्त्र बोला जाता है, उसमें कहा गया है कि कौन लेता है, कौन देता है, काम ही दाता है, काम ही प्रतिगृहीता है आदि । लगता है कि इसी कथन की व्याख्या के लिए महाभारत शान्तिपर्व १९९ में एक आख्यान रचा गया है । जापक ब्राह्मण द्वारा राजा को पुण्यों का प्रतिग्रह/दान देने का प्रयत्न किया जाता है जिस पर राजा आपत्ति करता है कि उसका धर्म तो दान देना है, वह कैसे दान ले सकता है । राजा के सामने विरूप व विकृत नामक २ ब्राह्मण प्रकट हो जाते हैं । राजा इस समस्या का हल इस प्रकार निकालता है कि जापक ब्राह्मण और राजा प्रतिग्रह का समान रूप से उपभोग करे । ऐसा हल निकलते ही विरूप व विकृत अदृश्य हो जाते हैं और कहते हैं कि वह तो काम और क्रोध हैं जो इस रूप में प्रकट हुए थे । यद्यपि पूरे आख्यान का निहितार्थ अन्वेषणीय है, लेकिन इस आख्यान में एक विशेष तथ्य समान रूप से उपभोग करने का है । सामान्य दृष्टि से तो यह गौण लगता है, लेकिन आधुनिक भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है । तापगतिकी या थर्मोडायनेमिक्स के द्वितीय सार्वत्रिक नियम के अनुसार इस संसार की अव्यवस्था की माप में निरन्तर वृद्धि हो रही है । इसका अभिप्राय यह है कि, जैसा कि उषा शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, संसार की ऊर्जा कार्य करने से नष्ट तो नहीं होती, केवल रूपान्तरित हो जाती है । लेकिन वह ऊर्जा क्रमिक रूप से उस अव्यवस्था को जा रही है जहां उससे कोई काम लेना संभव नहीं रहेगा । उदाहरण के लिए, वाष्प के इंजन में जब तक वाष्प उसके सिलिण्डर में बंद रहती है, एक सीमित स्थान में बद्ध रह कर व्यवस्थित रहती है, उससे कोई भी कार्य लिया जा सकता है । जब वह वाष्प वायुमण्डल में फैल जाती है, अव्यवस्थित हो जाती है तो वह कार्य करने के लिए बेकार हो जाती है । अतः प्रश्न ऊर्जा का नहीं है, अव्यवस्था का है । इसमें इंजन का सिलिण्डर दाता है, वायुमण्डल प्रतिगृहीता है । भौतिक विज्ञान में ऐसा कोई उपाय नहीं है जहां कार्य करने में इस अव्यवस्था को रोका जा सके । लेकिन वैदिक विज्ञान यह उपाय प्रस्तुत करता है कि न दाता हो, न प्रतिगृहीता हो, दोनों समान रूप से भोक्ता हों तो इस ऋण की स्थिति से बचा जा सकता है । हाल ही में सूचना टेक्नालाजी में ऐसे प्रयोग सफलतापूर्वक हो रहे हैं और बाजार में भी आने लगे हैं जहां प्रकाश के एक कण, फोटोन का ध्रुवीकरण या पोलेराइजेशन करके उसे परोक्ष रूप से २ भागों में बांट दिया जाता है । यह ध्रुवीकरण क्या होता है, अभी स्पष्ट रूप से कहना संभव नहीं है । कुछ कांच विशेष ऐसे होते हैं जिनमें से यदि प्रकाश को भेजा जाए तो वह दो भागों में बंट जाता है । सूचना प्रेषण के लिए एक भाग को प्रतिगृहीता के पास भेजा जाता है और दूसरा स्वयं के पास रहता है । वास्तव में यह प्रकाश २ भागों में बंटे रहने पर भी किसी प्रकार से जुडा रहता है, एक इकाई की तरह ही व्यवहार करता है । यदि एक भाग के साथ कोई छेडछाड की जाती है, तो दूसरे भाग में भी वह परिलक्षित हो जाती है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर तो इस घटना की पुनरावृत्ति सरलता से देखने को मिलती ही है । एक व्यक्ति के दुःख या सुख से दूसरा व्यक्ति दूर बैठे हुए भी परिचित हो जाता है । या एक व्यक्ति दूसरे के विचार जान लेता है । ऋग्वेद १०.३४.१० तथा अथर्ववेद ६.११९.१ में कितव/जुआरी द्वारा ऋणयुक्त हो जाने का उल्लेख आता है । इन्दौर से डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने कितव/द्यूत की व्याख्या इस प्रकार की है कि प्रकृति में जो घटनाएं घट रही हैं, वह सब द्यूत रूप हैं, चांस हैं, हो भी सकती हैं, नहीं भी । अतः यह स्वाभाविक है कि ऋग्वेद की इस ऋचा के कथनानुसार प्रकृति भी ऋणयुक्त हो । ऋणमुक्त होने के लिए द्यूत की अवस्था से ऊपर उठना होगा । जैसा कि कृत की टिप्पणी में कहा जा चुका है, द्वापर युग में केवल द्यूत की स्थिति रहती है, त्रेता युग में यज्ञ रूप क्रिया परक स्थिति, सम्यक् क्रिया प्रधान रहती है तथा कृतयुग में सत्यपरक स्थिति प्रधान रहती है । देव ऋण से मुक्त होने के लिए वैदिक व पौराणिक साहित्य में यज्ञ को उपाय बताया गया है । पौराणिक साहित्य में पितृऋण से उऋण होने के लिए पुत्र के महत्त्व का अतिशयोक्ति पूर्वक वर्णन किया गया है । इस अतिशयोक्ति का मूल शाङ्खायन श्रौत सूत्र १५.१७ तथा ऐतरेय ब्राह्मण ७.१३ में खोजा जा सकता है जहां नारद राजा हरिश्चन्द्र को पुत्र प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं और पुत्र को ज्योति कहते हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.४ तथा तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३ में भी पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए प्रजनन का निर्देश है । पुराणों में ऋण पर ब्याज का वर्णन भी मिलता है जिसे वर्धमान ऋण कहा जाता है । संस्कृत भाषा में ब्याज को कुसीद कहा जाता है और ऋग्वेद ८.८१ से ८.८३ सूक्तों का ऋषि कुसीदी काण्व है । गोपथ ब्राह्मण २.४.८ में यम में कुसीद होने का उल्लेख है । महानारायणोपनिषद २०.१२ में शरीर को यज्ञ और शमल या पाप, दोष को कुसीद कहा गया है और कामना की गई है कि हमसे द्वेष करने वाला इसमें बैठे । श्रौत सूत्रों में सार्वत्रिक रूप से पारिप्लव यज्ञ के ७वें दिन असित धान्व राजा, कुसीद संज्ञक असुर उसकी प्रजा कहे गए हैं और माया वेद की प्राप्ति होती है ( शाङ्खायन श्रौत सूत्र १६.२.२०, आश्वलायन श्रौत सूत्र १०.७.७, शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.११) । बौधायन श्रौत सूत्र ४.११, १७.३८, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.२४.१५ आदि में भी कुसीद का उल्लेख आता है । अग्नि पुराण आदि में धान्य, रस/रथ आदि पर अधिकतम वृद्धियों के निर्देश इस संबंध में विचारणीय हैं । वैदिक साहित्य में अर्ण:, अर्णव आदि शब्द प्रकट होते हैं । अर्णव शब्द की व्युत्पत्ति भी ऋण शब्द के समान ही ऋ - गतौ धातु के आधार पर की जाती है । भाष्यकारों ने अर्णव का अर्थ प्रायः जल को धारण करने वाले मेघ अथवा समुद्र के रूप में किया है । ऋग्वेद की ऋचाओं में अर्णव और समुद्र शब्दों का साथ - साथ उल्लेख भी आया है । ऋचाओं में इन्द्र द्वारा अर्णव का उब्जन करने के, उसके जल को नीचे की ओर प्रसारित करने के उल्लेख आते हैं । शतपथ ब्राह्मण में प्राणों को अर्णव कहा गया है । ऋण के सम्बन्ध में अर्णव से क्या सूचना प्राप्त की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है । अथर्ववेद १९.४५.१ में चक्षुओं में अञ्जन के संदर्भ में कहा गया है कि ऋण से ऋण ग्रहण करने की भांति( संनयन ) कृत्या को कृत्या उत्पन्न करने वाले के घर में ले जाए । यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । यदि भौतिक विज्ञान की दृष्टि से ऋण को अव्यवस्था माना जाए तो अव्यवस्था की तो कोई सीमा नहीं है । एक अव्यवस्था से कार्य लेते हुए उससे बडी अव्यवस्था उत्पन्न की जा सकती है । उदाहरण के लि, पहले वाष्प के इंजन में बंद वाष्प को वायुमण्डल में छोडकर उससे काम लिया जा सकता है । फिर वायुमण्डल की वाष्प को आकाश में निर्वात में छोडकर उससे फिर काम लिया जा सकता है । शांखायन श्रौत सूत्र में पुत्र के संदर्भ में ऋण के संनयन का उल्लेख आता है । ऋग्वेद ८.४७.१७ में भी ऋण के संनयन का उल्लेख है । प्रथम लेखन : २६-१२-२००४ई.
संदर्भ ऋण *स हि स्वसृत् पृषदश्वो युवा गणो ऽया ईशानस्तविषीभिरावृतः। असि सत्य ऋणयावानेद्यो ऽस्या धियः प्राविताथा वृषा गणः ॥ - ऋ. १.८७.४ *प्रति घोराणामेतानामयासां मरुतां शृण्व आयतामुपब्दिः। ये मर्त्यं पृतनायन्तमूमैर्ऋणावानं न पतयन्त सर्गैः ॥ - ऋ. १.१६९.७ *अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रुं पृतनासु सासहिः। असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद् दमिता वीळुहर्षिणः ॥ - ऋ. २.२३.११ *विश्वेभ्यो हि त्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नःसाम्नः कविः। स ऋणचिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्ता मह ऋतस्य धर्तरि ॥ - ऋ. २.२३.१७ *उताशिष्ठा अनु शृण्वन्ति वह्नयः सभेयो विप्रो भरते मती धना। वीळुद्वेषा अनु वश ऋणमाददिः स ह वाजी समिथे ब्रह्मणस्पतिः ॥ - ऋ. २.२४.१३ *धारयन्त आदित्यासो जगत् स्था देवा विश्वस्य भुवनस्य गोपाः। दीर्घाधियो रक्षमाणा असुर्यमृतावानश्चयमाना ऋणानि ॥ - ऋ. २.२७.४ *पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्। अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास आ नो जीवान् वरुण तासु शाधि ॥ - ऋ. २.२९.९ *मा कस्य यक्षं सदमिद्ध्रुरो गा मा वेशस्य प्रमिनतो मापेः। मा भ्रातुरग्ने अनृजोर्ऋणं वेर्मा सख्युर्दक्षं रिपोर्भुजेम ॥ - ऋ. ४.३.१३ *द्रुहं जिघांसन् ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका। ऋणा चिद् यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे ॥ - ऋ. ४.२३.७ *भद्रमिदं रुशमा अग्ने अक्रन् गवां चत्वारि ददतः सहस्रा। ऋणंचयस्य प्रयता मघानि प्रत्यग्रभीष्म नृतमस्य नृणाम् ॥ - ऋ. ५.३०.१२ *औच्छत् सा रात्री परितक्म्या याँ ऋणंचये राजनि रुशमानाम्। अत्यो न वाजी रघुरज्यमानो बभ्रुश्चत्वार्यसनत् सहस्रा ॥ - ऋ. ५.३०.१४ *अध स्मास्य पनयन्ति भासो वृथा यत् तक्षदनुयाति पृथ्वीम्। सद्यो यः स्पन्द्रो विषितो धवीयानृणो न तायुरति धन्वा राट् ॥ - ऋ. ६.१२.५ *इयमददाद् रभसमृणच्युतं दिवोदासं वध्र्यश्वाय दाशुषे। या शश्वन्तमाचखादावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ॥ - ऋ. ६.६१.१ *न नूनं ब्रह्मणामृणं प्राशूनामस्ति सुन्वताम्। न सोमो अप्रता पपे ॥ - ऋ. ८.३२.१६ *यथा कलां यथा शफं यथ ऋणं संनयामसि। एवा दुष्ष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये सं नयामस्यनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥ - ऋ. ८.४७.१७ *उग्रं युयुज्म पृतनासु सासहिमृणकातिमदाभ्यम्। वेदा भृमं चित् सनिता रथीतमो वाजिनं यमिदू नशत् ॥ - ऋ. ८.६१.१२ *आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं चित्रं ग्राभं सं गृभाय। महाहस्ती दक्षिणेन ॥ (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - - - - - - ऋ. ८.८१.१ *आ प्र द्रव परावतो ऽर्वावतश्च वृत्रहन्। मध्वः प्रति प्रभर्मणि ॥ (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - ऋ. ८.८२.१ *देवानामिदवो महत् तदा वृणीमहे वयम्। वृष्णामस्मभ्यमूतये ॥ - - - - - (ऋषिः कुसीदी काण्वः) - ऋ. ८.८३.१ *कृतानीदस्य कर्त्वा चेतन्ते दस्युतर्हणा। ऋणा च धृष्णुश्चयते ॥ - ऋ. ९.४७.२ *वृषा वि जज्ञे जनयन्नमर्त्यः प्रतपञ्ज्योतिषा तमः। स सुष्टुतः कविभिर्निर्णिजं दधे त्रिधात्वस्य दंससा ॥ स सुन्वे यो वसूनां यो रायामानेता य इळानाम्। सोमो यः सुक्षितीनाम् ॥ (ऋषिः ऋणंचयो राजर्षिः) - ऋ. ९.१०८.१२-१३ *पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे ॥ - ऋ. ९.११०.१ *जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित्। ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानो ऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति ॥ - ऋ. १०.३४.१० *त्वं ह त्यदृणया इन्द्र धीरो ऽसिर्न पर्व वृजिना शृणासि। प्र ये मित्रस्य वरुणस्य धाम युजं न जना मिनन्ति मित्रम् ॥ - ऋ. १०.८९.८ *उप मा पेपिशत् तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय ॥ - ऋ. १०.१२७.७ *यथा कलां यथा शफं यथर्णं संनयन्ति। एवा दुष्वप्न्यं सर्वं द्विषते सं नयामसि ॥ - अथर्ववेद ६.४६.३ *अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि। इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ॥ इहैव सन्तः प्रति दद्म एनज्जीवा जीवेभ्यो नि हराम एनत्। अपमित्य धान्यं यज्जघसाहमिदं तदग्ने अनृणो भवामि ॥ अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान् पथो अनृणा आ क्षियेम ॥ - अ. ६.११७.१-३ *यद्धस्ताभ्यां चकृम किल्बिषाण्यक्षाणां गत्नुमुपलिप्समानाः। उग्रंपश्ये उग्रजितौ तदद्याप्सरसावनु दत्तामृणं नः ॥ उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत् किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनु दत्तं न एतत्। ऋणान्नो नर्णमेर्त्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुरायत् ॥ यस्मा ऋणं यस्य जायामुपैमि यं याचमानो अभ्यैमि देवाः। ते वाचं वादिषुर्मोत्तरां मद्देवपत्नी अप्सरसावधीतम् ॥ - अ. ६.११८.१-३ *यददीव्यन्नृणमहं कृणोम्यदास्यन्नग्न उत संगृणामि। वैश्वानरो नो अधिपा वसिष्ठ उदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥ वैश्वानराय प्रति वेदयामि यद्यृणं संगरो देवतासु। स एतान् पाशान् विचृतं वेद सर्वानथ पक्वेन सह सं भवेम ॥ वैश्वानरः पविता मा पुनातु यत् संगरमभिधावाम्याशाम्। अनाजानन् मनसा याचमानो यत् तत्रैनो अप तत् सुवामि ॥ - अ. ६.११९.१-३ *ऋणादृणमिव संनयन् कृत्यां कृत्याकृतो गृहम्। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणाञ्जन। - अ. १९.४५.१ *यद्वेव देवताया आदिशति। यावतीभ्यो ह वै देवताभ्यो हवींषि गृह्यन्ते, ऋणमु हैव तास्तेन मन्यन्ते - यदस्मै तं कामं समर्द्धयेयुः, यत्काम्या गृह्णाति। - शतपथ ब्राह्मण १.१.२.१९ *अवदान क्लृप्तिः :- ऋणं ह वै जायते योऽस्ति। स जायमान एव देवेभ्य ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः। स यदेव यजेत - तेन देवेभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेनान् यजते, यदेभ्यो जुहोति। अथ यदेवानुब्रुवीत - तेन ऋषिभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - ऋषीणां निधिगोप इति ह्यनूचानमाहुः। अथ यदेव प्रजामिच्छेत - तेन पितृभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेषां सन्तताऽव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति। अथ यदेव वासयेत - तेन मनुष्येभ्य ऋणं जायते। तद्ध्येभ्य एतत् करोति - यदेनान् वासयते, यदेभ्योऽशनं ददाति। स य एतानि सर्वाणि करोति, स कृतकर्मा, तस्य सर्वमाप्तं, सर्वं जितम्। स येन देवेभ्य ऋणं जायते - तदेनांस्तदवदयते - यद्यजते। अथ यदग्नौ जुहोति - तदेनांस्तदवदयते। तस्माद् यत् किञ्चाग्नौ जुह्वति तदवदानं नाम। तद्वै चतुरवत्तं भवति। - - - शतपथ ब्राह्मण १.७.२.१-७ *धिष्ण्य पदार्थ विधानं : ऋणं ह वै पुरुषो जायमान एव मृत्योरात्मना जायते। स यद्यजते - यथैव तत् सुपर्णी देवेभ्य आत्मानं निरक्रीणीत - एवमेवैष एतन्मृत्योरात्मानं निष्क्रीणीते। - शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१६ *या व्याघ्रं विषूचिकोभौ वृकं च रक्षति। श्येनं पतत्रिणं सिंहं सेमं पात्वंहसः ॥ यदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन्। एतत्तदग्ने अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया ॥ - मा.श. १२.७.३.२१ *पारिप्लवाख्यानब्राह्मणम् : अथ सप्तमेऽहन्नेवमेव। एतास्विष्टिषु संस्थितासु। एषैवावृदध्वर्यविति। हवै होतरित्येवाध्वर्युः। असितो धान्वो राजेत्याह। तस्यासुरा विशः। त इम आसत इति। कुसीदिन उपसमेता भवन्ति। तानुपदिशति। माया वेदः सोऽयमिति। - मा.श. १३.४.३.११ *कूष्माण्डहोमगत मन्त्राः :- यत्कुसीदमप्रतीत्तं मयेह येन यमस्य निधिना चरामि। एतत्तदग्ने अनृणो भवामि जीवन्नेव प्रति तत्ते दधामि ॥ - तै.आ. २.३.१ *यददीव्यन्नृणमहं बभूवादित्सन्वा संजगर जनेभ्यः। अग्निर्मा तस्मादिन्द्रश्च संविदानौ प्रमुञ्चताम् ॥ यद्धस्ताभ्यां चकर किल्बिषाण्यक्षाणां वग्नुमुपजिघ्नमानः। उग्रंपश्या च राष्ट्रभृच्च तान्यप्सरसावनुदत्तामृणानि ॥ उग्रंपश्ये राष्ट्रभृत्किल्बिषाणि यदक्षवृत्तमनुदत्तमेतत्। नेन्न ऋणानृणव इत्समानो यमस्य लोके अधिरज्जुराय। - तै.आ. २.४.१ *वैश्वानराय प्रतिवेदयामो यदीनृणं संगरो देवतासु। स एतान्पाशान्प्रमुचन्प्रवेद स नो मुञ्चातु दुरितादवद्यात् ॥ - तै.आ. २.६.१ *यदन्नमद्म्यनृतेन देवा दास्यन्नदास्यन्नुत वाऽकरिष्यन्। यद्देवानां चक्षुष्यागो अस्ति यदेव किंच प्रतिजग्राहमग्निर्मा तस्मादनृणं कृणोतु ॥ - तै.आ. २.६.२ *य एवं विद्वान्महारात्र उषस्युदिते व्रजंस्तिष्ठन्नासीनः शयानोऽरण्ये ग्रामे वा यावत्तरसं स्वाध्यायमधीते सर्वाfल्लोकाञ्जयति सर्वाfल्लोकाननृणोऽनुसंचरति तदेषाऽभ्युक्ता - अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिंस्तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयाना उत पितृयाणाः सर्वान्पथो अनृणा आक्षीयेमेति। - तै.आ. २.१५.१ *प्रजननं वै प्रतिष्ठा लोके साधु प्रजायास्तन्तुं तन्वानः पितृणामनृणो भवति तदेव तस्या अनृणं तस्मात्प्रजननं परमं वदन्ति - तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३. *सैषा दिगपराजिता। तस्मैदेतस्यां दिशि यतेत वा यातयेद्वेश्वरो हानृणाकर्तोः - ऐ.ब्रा. १.१४ *प्रउग शस्त्रम् : इयमददाद्रभसमृणच्युतमिति प्रउगं पारुच्छेपमतिच्छन्दाः सप्तपदं षष्ठेऽहनि षष्ठस्याह्नो रूपम् - ऐ.ब्रा. ५.१२ *हरिश्चन्द्र - नारद आख्यानम् : स एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच। ऋणमस्मिन्संनयत्यमृतत्वं च गच्छति। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ॥ - ऐ.ब्रा. ७.१३ *पर्यूषु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्रा भूब्रह्म प्राणममृतं प्रपद्यतेऽयमसौ शर्म वर्माभयं स्वस्तये। सह प्रजया सह पशुभिर्णि सक्षणिर्द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे स्वाहा। - ऐतरेय ब्राह्मण ८.११ *राजसूये वरुणप्रघास विधिः :-अक्रन्कर्म कर्मकृत इत्याह। देवानृणं निरवदाय। अनृणा गृहानुपप्रेतेति वैवैतदाह। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.५.५ *- - - - - कामेन त्वा प्रतिगृह्णामीत्याह। येन कामेन प्रतिगृह्णाति। स एवैनममुष्मिfल्लोके काम आगच्छति। कामैतत्त एषा ते काम दक्षिणेत्याह। काम एव तद्यजमानोऽमुष्मिfल्लोके दक्षिणामिच्छति। न प्रतिग्रहीतरि। य एवं विद्वान्दक्षिणां प्रतिगृह्णाति। अनृणामेवैनां प्रतिगृह्णाति ॥ - तै.ब्रा. २.२.५.६ *अच्छिद्रकाण्डाभिधानम् : अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन्। तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयाना उत पितृयाणाः। सर्वान्पथो अनृणा आक्षीयेम ॥ - तै.ब्रा. ३.७.९.८ *दर्भपुञ्जीलै: पाव्यमानस्य यजमानस्य जयार्था मन्त्राः :- यद्धस्ताभ्यां चकर किल्बिषाणि। अक्षाणां वग्नुमुपजिघ्नमानः। दूरेपश्या च राष्ट्रभृच्च। तान्यप्सरसावनुदत्तामृणानि। अदीव्यन्नृणं यदहं चकार। यत्रऽदास्यन्त्संजगारा जनेभ्यः। अग्निर्मा तस्मादेनसः। यन्मयि माता गर्भे सति। एनश्चकार यत्पिता। अग्निर्मा तस्मादेनसः। यदा पिपेष मातरं पितरम्। पुत्रः प्रमुदितो धयन्। अहिंसितौ पितरौ मया तत्। तदग्ने अनृणो भवामि। - तै.ब्रा. ३.७.१२.३ *पुनराधानसंबन्ध्यङ्गजातनिरूपणम् : वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुद्वासयते तस्य वरुण एवर्णयादाग्निवारुणमेकादशकपालमनु निर्वपेद्यं चैवं हन्ति यश्चास्यर्णयात्तौ भागधेयेन प्रीणाति नाऽऽर्तिमार्छति यजमानः। - तैत्तिरीय संहिता १.५.२.५ *अवदानाभिधानम् : जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी तदवदानैरेवाव दयते तदवदानानामवदानत्वं - तै.सं. ६.३.१०.५ *शरीरं यज्ञः शमलं कुसीदं तस्मिन्त्सीदतुn योऽस्मान्द्वेष्टि। - महानारायणोपनिषद २०.१३ *राजसूयप्रकरणम् : स (नारदः) एकया पृष्टो दशभिः प्रत्युवाच। ऋणमस्मिन्संनयत्यमृतत्वं च विन्दते। पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् ॥ - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १५.१७.१ *अश्वमेध प्रकरणम् : असितो धान्वन इति सप्तमे। तस्यासुरा विशस्त इम आसत इति कुसीदिन उपदिशति। असुरविद्या वेदः सोऽयमिति मायां काञ्चित्कुर्यात्। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १६.२.२० *- - - - -इयमददाद्रभसमृणच्युतमिति प्रउगम्। - आश्वलायन श्रौत सूत्र ८.१.१२ *सप्तमेऽहन्यसितो धान्वस्तस्यासुरा विशस्त इम आसत इति कुसीदिन उपसमानीताः स्युस्तानुपदिशत्यसुरविद्या वेदः सोऽयमिति मायां कांचित्कुर्यात्। - आश्वलायन श्रौत सूत्र १०.७.७ *पशुबन्धः :- यत्कुसीदमप्रतीत्तं मयि येन यमस्य बलिना चरामि। इहैव सन्निरवदये तदेतत्तदग्ने अनृणो भवामीत्यथाञ्जलिनोपस्तीर्णाभिघारितान्सक्तून्प्रदाव्ये जुहोति - बौधायन श्रौत सूत्र ४.११ *सौत्रामणी : पयस्वां अग्न आगमं तं मा संसृज वर्चसेत्यथ कुसीदेन सक्तुहोमेन चरत्यथ देवता उपस्थाय यूपमुपतिष्ठते। - बौधायन श्रौत्र सूत्र १७.३८ *अग्नीनाधास्यमानः प्रज्यमात्मानं कुर्वीत येनास्याकुशलं स्यात्तेन कुशलं कुर्वीत यान्यृणान्युत्थितकालानि स्युस्तानि व्यवहरेदनुज्ञापयीत वा- - - - -बौधायन श्रौत सूत्र २४.१२ *अग्निष्टोमेन यक्ष्यमाणः प्रज्यमात्मानं कुर्वीत येनास्याकुशलं स्यात्तेन कुशलं कुर्वीत यान्यृणान्युत्थितकालानि स्युस्तानि व्यवहरेदनुज्ञापयीत वा - बौधायन श्रौत सूत्र २५.४ *अग्निष्टोम तृतीयसवनम् : आहवनीयादुल्मुकमादाय यजमानो वेदिमुपोषति यत्कुसीदमप्रतीत्तमिति। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.२४.१५ *अग्निचयनम् : पर्यू षु प्र धन्व वाजसातये परि वृत्राणि सक्षणिः। द्विषस्तरध्यै ऋणया न ईयसे ॥ - आप.श्रौ.सूत्र १६.१८.७ *दक्षिणा दानम् : उत्तमां दक्षिणां नीत्वोदवसाय वा दक्षिणेनौदुम्बरीं प्राङ्निषद्य ब्रूयाद्यन्मे ऽद ऋणं यददस्तत्सर्वं ददामीति। - आप.श्रौ.सूत्र २२.१.१० *अग्निर्वाव यम इयं यमी। कुसीदं वा एतद् यमस्य यजमान आदत्त, यदोषधीभिवेर्दिं स्तृणाति। तां यदनुपोष्य प्रयायात्, यातयेरन्नेनममुष्मिfल्लोके। यमे यत् कुसीदम्, अपमित्यमप्रतीत्तम् इति वेदिमुपोषति। इहैव सन् यमं कुसीदं निरवदायानृणो भूत्वा स्वर्गं लोकमेति। - गोपथ ब्राह्मण २.४.८ *क इदम् उद्गास्यति स इदम् उद्गास्यति इति। प्रजापतिर् वै कः। तम् एवादाव् आर्त्विज्याय वृणीते। स य एवं तद् उद्गायति वाचैवास्य कृतं भवत्य् अनृण आत्मना भवति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.३२७ *ऋणं भौमे न गृह्णीयान्न देयं बुधवासरे। ऋणच्छेदं कुजे कुर्यात्संचयं सोमनंदने॥ - ज्योतिःसार |