पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Riksha to Ekaparnaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Riksha - Rina ( Uushmaa/heat, Riksha/constellation, Rigveda, Richeeka, Rijeesha/left-over, Rina/debt etc.)

Rinamochana - Ritu ( Rita/apparent - truth, Ritadhwaja, Ritambhara, Ritawaaka, Ritu/season etc. )

Ritukulyaa - Rishi  (  Rituparna, Ritvija/preist, Ribhu, Rishabha, Rishi etc.)

Rishika - Ekaparnaa (  Rishyamuuka, Ekadanta, Ekalavya etc.)

 

 

 

ऋतधामा

टिप्पणी : पुराणों में इन्द्र, मनु एवं व्यास को ऋतधामा नाम दिया गया है वैदिक साहित्य में ऋत का धाम कौन सा है, इसकी व्याख्या मात्र उपलब्ध होती है वहां इन्द्र,मनु अथवा व्यास का नाम नहीं है   जैमिनीय ब्राह्मण .३८४ के अनुसार भू, भुव: और स्व: लोक में भुव: लोक ऋत का धाम है जैमिनीय ब्राह्मण .३४७ के अनुसार ऋत का धाम वायु का लोक है जैमिनीय ब्राह्मण .१२१ तथा तैत्तिरीय संहिता ... के अनुसार यह अन्तरिक्ष लोक है तैत्तिरीय संहिता ... में अग्नि के लिए ऋत के धाम से इष ऊर्ज का सम्पादन किया जाता है ऋग्वेद .४३. में ऋत के धाम में सोम की प्रजाओं का उल्लेख आता है इसके अतिरिक्त ऋग्वेद .., .३६. तथा १०.१२४. में भी ऋत के धाम का उल्लेख आता है अन्तरिक्ष मधु का स्थान है

ऋतध्वज

टिप्पणी : ऋतध्वज के संदर्भ में वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख उपलब्ध नहीं है आप्टे के संस्कृत - अंग्रेजी कोश में रुद्र के ऋतध्वज नाम का उल्लेख है यदि ऋत लोक को वायु का लोक माना जाए तो वायु लोक की चरम सीमा तृतीय नेत्र है अतः इसे ऋतध्वज कहा जा सकता है ऋग्वेद .४३., अथर्ववेद .३६., तैत्तिरीय संहिता ..११. तथा तैत्तिरीय आरण्यक .. के आधार पर ऋतध्वज को घर्म भी कह सकते हैं । ऋतध्वज द्वारा शूकर रूप धारी पातालकेतु राक्षस को बाण से वेधन के प्रसंग के संदर्भ में, पौराणिक साहित्य में यज्ञ को यज्ञवराह / शूकर का रूप दिया जाता है सायण भाष्य में ऋत का अर्थ स्थान - स्थान पर यज्ञ किया गया है डा. फतहसिंह के अनुसार यज्ञ के कईं स्तर हैं । निचले स्तर पर, मर्त्य स्तर पर वरुण का यज्ञ चलता है ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु का पीछा करते हुए गर्त में प्रवेश करने से तात्पर्य अपने व्यक्तित्व के निचले कोशों मे, स्तरों में प्रवेश से हो सकता है

          ऋतध्वज - पत्नी मदालसा, जिसे कुण्डला की सखी कहा गया है और जिसे ऋतध्वज गर्त में प्रवेश करने के पश्चात् पाता है, के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य से कोई प्रत्यक्ष संकेत नहीं मिलता परोक्ष संकेत बौधायन श्रौत सूत्र .१९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ११..१० से इस प्रकार प्राप्त होता है कि अग्निष्टोम यज्ञ के प्रातःसवन में आग्नीध्र नामक ऋत्विज से पूछा जाता है कि आपः मद उत्पन्न करते हैं या नहीं ? आग्नीध्र उत्तर देता है कि ' मदन्ति देवी अमृता ऋतावृध ' तब आग्नीध्र से कहा जाता है कि उन्हें ले आओ तब आग्नीध्र मदन्ती नामक पात्र को छूकर, हिरण्य रखकर सोम का सिंचन करता है आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.१३. में भी द्युलोक के यज्ञ द्वारा तथा पृथिवी में ऋत द्वारा वर्धन होने पर मोद का उल्लेख आता है इन प्रसंगों में मदन्ती मदालसा का रूप हो सकता है मदालसा के बारे में दूसरा परोक्ष संकेत ऋग्वेद .१६१. से मिल सकता है जहां ऋभुगण ऋता को बोलते हुए चमसों / यज्ञपात्रों का निर्माण करते हैं । जैसा कि महाभारत में स्पष्ट किया गया है, ऋता सत्त्व के १८ गुणों से युक्त प्रकृति का नाम है इसकी सहायता से ऋभुगण एक चमस के चमस बना देते हैं । चार चमस मदालसा के पुत्रों के संकेत हो सकते हैं।

 

ऋतम्भर

टिप्पणी : ऋतम्भर राजा की धेनु ऋतम्भरा प्रज्ञा है, वह प्रज्ञा जिसके द्वारा यह ज्ञात हो जाए कि किस समय कौन सा कार्य करना है, त्रिकाल दृष्टि जाबालि ऋषि उपनिषदों में सत्यकाम है जो जबाला का पुत्र है सत्यकाम से गुरु ने पूछा कि वह किसका पुत्र है ? उसने उत्तर दिया कि मेरी माता कहती है कि उसने बहुत से ऋषियों की सेवा की है पता नहीं वह किसका पुत्र है ऋषि का अर्थ ज्ञानवृत्ति है अज का अर्थ है जिसका जन्म नहीं , जो अजात है जबाला के ज का अर्थ है वह सत्य जो जायमान  है, जन्म ले सकता है बाला का अर्थ है जिसने जायमान सत्य को बल दिया हो, उसे प्रज्वलित कर दिया हो ऐसी जबाला ने सत्य को, ज्ञान को विभिन्न ऋषियों से एकत्र किया है तभी सत्य उत्पन्न हो सकता है उसी का पुत्र सत्यकाम है वह जाबालि ऋषि है , वही ऋतम्भर को सत्य बता सकता है जंगल से व्याघ्र का आना ऋतंभरा प्रज्ञा में अहंकार का उत्पन्न होना है मैं प्रज्ञावान हूं, ऐसा अहंकार ऋतम्भरा प्रज्ञा रूपी गौ को खा जाता है इस अहंकार को नष्ट करने का उपाय अयोध्यापति ऋतुपर्ण बताता है - रामभक्ति इससे अहंकार नष्ट हो जाएगा फिर राजा गौ की सेवा करे तो सन्तान उत्पन्न होगी चित्तवृत्तियाँ जो अन्तर्मुखी हैं, गौ कहलाती हैं । - फतहसिंह

           वैदिक साहित्य में केवल ऋग्वेद .५९. .९७.२४ में ही ऋतम्भर शब्द का उल्लेख आया है इस ऋचा में द्युलोक पृथिवी से ऋत के भरण के लिए मरुतों की अर्चना की जाती है पुराणों में ऋतम्भर की कथा वैदिक साहित्य की किस ग्रन्थि को सुलझाती है, यह अन्वेषणीय है ऋतम्भर को सत्यवान् रूपी पुत्र प्राप्ति की चिन्ता है जिसके लिए वह जाबालि ऋषि के पास जाता है उपनिषदों में जाबालि का नाम सत्यकाम जाबालि आया है जो जबाला का पुत्र है जबाला / जभारा ऋषियों से सत्य का भरण / सम्पादन करती है ऋतम्भर द्वारा गौ की सेवा के संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि अश्व का सम्बन्ध सत्य के साथ होगा और गौ का ऋत के साथ ऋग्वेद .८४.१६, .., .५६., .४०., .४५. , .३६., .६६.१२, .७२., .९४., १०.१००.१०, १०.१०८.११, अथर्ववेद १०.१०.३३, २०.१७., तैत्तिरीय संहिता ..११. में भी ऋत के साथ गौ का उल्लेख आया है इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद .७३., .१४१., .१५३., .२३.१०, .७०., .७७., अथर्ववेद .. में ऋत के साथ धेनु या धेना शब्द प्रकट हुआ है ऋग्वेद .. .२३. में उल्लेख आता है कि ऋत से ऋत की स्तुति की जाती है  जिस प्रकार गौ कच्चा खाकर उसे मधु समान दुग्ध में रूपान्तरित कर देती है , ऐसे ही ऋत को पकाकर उसे मधु का रूप प्रदान करना है यह मधु रूप ही सत्य का रूप हो सकता है जिसकी ऋतम्भर को अभिलाषा है आगे की कथा का तात्पर्य अन्वेषणीय है

          अथर्ववेद १०..३१ तथा शतपथ ब्राह्मण ...१० के आधार पर एक प्रबल संभावना यह बनती है कि ऋत भक्ति के अज और अवि प्रकारों से सम्बन्धित है इससे आगे की भक्तियां गौ और अश्व होती हैं । अतः पुराणों में ऋतम्भर की कथा के माध्यम से इस परोक्ष तथ्य को स्पष्ट किया गया है

 

ऋतम्भरा

टिप्पणी : केवल पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ४८ में ऋतम्भरा प्रज्ञा का उल्लेख आया है स्वामी ओमानन्द कृत पातञ्जल योग प्रदीप के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ऋतम्भरा प्रज्ञा सविकल्प समाधि की स्थिति है इससे उच्चतर स्थिति निर्विकल्प समाधि है निर्विकल्प समाधि के पश्चात् व्युत्थान हो तो इस प्रकार से हो कि समाधि से तारतम्य जुडा रहे , यह अभीष्ट है तब योगी पथ भ्रष्ट नहीं होता

 

ऋतवाक्

टिप्पणी : ऋग्वेद .१७९., .१८५.१०, .३१.२१, .५५., ..११, .., .११३., .११३., १०.१२., १०.३५., १०.६१.१०, १०.११०.११, १०.१३८., १०.१७७., अथर्ववेद .., १४..३१, १८..२९, तैत्तिरीय ब्राह्मण ..., जैमिनीय ब्राह्मण .१६०, .८९, .३६० आदि में ऋतवाक् के उल्लेख आए हैं । ऋग्वेद .२३. के अनुसार ऋत का श्लोक बधिर को भी सुनाई पडता है सायण ने ऋत का अर्थ स्तोत्र भी किया है अतः यह कहा जा सकता है कि ऋतवाक् सामञ्जस्य की कोई अवस्था है जिससे ऐतरेय आरण्यक के संकेतों के अनुसार सत्यवाक् रूपी पुष्प और फल उत्पन्न होते हैं । पुराणों में ऋतवाक् मुनि द्वारा रेवती के पातन की कथा का रहस्य अन्वेषणीय है

ऋता  

टिप्पणी :ऋग्वेद .४६.१४, .६७., .१६१., .१५.१४, .६७., .९७.३७, १०.१०., १०.१०६. में ऋता शब्द प्रकट हुआ है ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर ऋतावृध:, ऋतावाना, ऋतावरी आदि शब्द प्रकट हुए हैं जिनका पद पाठ ऋतऽवृध: , ऋतऽवाना, ऋतऽवरी आदि रूपों में किया गया है वैदिक साहित्य में अन्य किसी स्थान पर ऋता की व्याख्या उपलब्ध नहीं होती यह अन्वेषणीय है कि क्या ऋतम्भरा प्रज्ञा और ऋतध्वज - पत्नी मदालसा को ऋता से जोडा जा सकता है ? ऋग्वेद .४६.१४ की ऋचा में ऋता का सायण भाष्य यज्ञगत हवियां किया गया है

 This page was last updated on 06/24/10.