पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Riksha to Ekaparnaa)

Radha Gupta, Suman Agarwal and Vipin Kumar

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Riksha - Rina ( Uushmaa/heat, Riksha/constellation, Rigveda, Richeeka, Rijeesha/left-over, Rina/debt etc.)

Rinamochana - Ritu ( Rita/apparent - truth, Ritadhwaja, Ritambhara, Ritawaaka, Ritu/season etc. )

Ritukulyaa - Rishi  (  Rituparna, Ritvija/preist, Ribhu, Rishabha, Rishi etc.)

Rishika - Ekaparnaa (  Rishyamuuka, Ekadanta, Ekalavya etc.)

 

 

 

 

All of us face ritus or seasons which change every year. Apparently it is so simple. But mystically, the whole Indian mythology has been woven around ritu and year. In mythology, ritus are supposed apparently to ripen the food. A deeper meaning of this statement can be sought from sacred vedic and puranic texts. Sun is the donor and ritus/seasons are the acceptors of energy.This way, cereals or foods are prepared in nature. One can extend this statement even further. The combination of sun, moon and seasons can be considered as soul, mind and body. Consciousness has to be firmly established in body. And the level of consciousness goes from lower to higher and still higer stages. This is the ripening of food about which sacred texts may be talking of(for details,one can read websites related to Steiner's work on astrology. He has attributed different stages of consciousness to different planets).Let this human being be fully ripe with supermental powers. An attempt will be made here to unravel the mystry of ritu - what it may signify in vedic, sacrificial and puranic literature. There seems to be no direct revelation either in puranic or vedic literature of what ritu/season can be. Only guess can be made. The best picture can be formed when we know the nature of different chhandas or meters.

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ऋतु

टिप्पणी : उणादि कोश १.७२ में ऋतु की परिभाषा अर्तेश्च तु:, अर्थात् पुनः - पुनः ऋच्छति गच्छति - आगच्छति इति ऋतु के रूप में की गई है । यह संकेत करता है कि ऋतु इस संसार में पुनः - पुनः आवागमन का मार्ग है । इसके विपरीत मोक्ष का सीधा मार्ग भी है और वैदिक साहित्य में यह दोनों मार्ग साथ - साथ मिलते हैं । उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण १०.२.५.७ में प्रवर्ग्य याग के साथ उपसद इष्टि का उल्लेख है । प्रवर्ग्य को आदित्य कहा गया है जबकि उपसद को ऋतुएं । इन यागों को एक साथ करने का अभिप्राय यह दिया गया है कि आदित्य की ऋतुओं में प्रतिष्ठा करते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण १.२३ में देवगण उपसदों की सहायता से विभिन्न लोकों, ऋतुओं, मासों, अर्धमासों, अहोरात्रों आदि से असुरों को भगाते हैं । तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.१ में प्रवर्ग्य को यज्ञ का शिर और उपसद को ग्रीवा कहा गया है । वायु पुराण अध्याय ३० में ऋत् से ऋतु के जन्म का उल्लेख है । ऋत् शब्द की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि ऋत् शब्द को अंग्रेजी भाषा के शब्द रिदम या हार्मोनी, जगत की व्यवस्था में सामञ्जस्य के आधार पर समझा जा सकता है । ऋत् शब्द का मूल शृत् , पका हुआ हो सकता है । भौतिक जगत में संवत्सर ऋतुओं द्वारा फलों, अन्नों, ओषधियों आदि को पकाने का कार्य करता है । आन्तरिक जगत में ऋतु हमारे इस व्यक्तित्व का पाक करेगी जिसका वर्णन सारे वैदिक और पौराणिक साहित्य में किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.४.४.१७ में गर्भ के ऋतुओं द्वारा पकने का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.२८ में योनि को ऋतव्या बनाने का निर्देश है । लेकिन कठिनाई यह है कि वैदिक सूत्र का वर्णन बहुत संक्षिप्त, सूत्र रूप में है जिसे समझना बहुत कठिन है । दूसरी ओर पुराणों की कथाएं रहस्यगर्भित हैं जिनके रहस्य समझ में नहीं आते । लेकिन वैदिक साहित्य को आधार बनाकर पुराणों की कथाओं से ऋतुओं के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में इसका एक प्रयास यहां किया गया है ।

          काल की टिप्पणी में यह उल्लेख किया गया है कि काल का अस्तित्व सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा की परस्पर गतियों से है । यदि पृथिवी सूर्य की परिक्रमा न करे तो अकाल की स्थिति होगी, काल से रहित । अध्यात्म में सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा का रूपान्तर क्रमशः प्राण, वाक् व मन के रूप में किया जा सकता है । भौतिक जगत में तो पृथिवी और सूर्य आदि के बीच स्वाभाविक आकर्षण है, लेकिन लगता है कि अध्यात्म में इस आकर्षण को उत्पन्न करना पडेगा । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से  आकर्षण उत्पन्न होना ऋतुओं को समझने की कुञ्जी प्रतीत होती है । भौतिक विज्ञान में २ प्रकार के कण होते हैं - एक तो वह जिनके बीच आकर्षण - विकर्षण होता है । उन्हें फर्मी कण नाम दिया गया है । दूसरे वह होते हैं जिनके बीज आकर्षण - विकर्षण नहीं होता । उन्हें बोस कण नाम दिया गया है । ऊर्जा की कोई किरण किसी स्थूल कण से कितने अंशों में टकराएगी, यह उस कण की प्रकृति पर निर्भर करता है । अभी स्थिति यह है कि जैव रूप में सक्रिय द्रव्यों को एक साथ मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा जाता है और सूर्य की किरणों द्वारा फोटोसंश्लेषण आदि क्रियाएं होने के पश्चात् उस द्रव्य में सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं । लेकिन कठिनाई यह है कि सूक्ष्म जीव उत्पन्न होने की आपेक्षिक संभावना बहुत कम होती है । यदि एक किलोग्राम द्रव्य को मिलाकर सूर्य की किरणों में रखा गया है तो हो सकता है कि संख्या में गिने चुने कणों में ही जीव उत्पन्न हो । इसी प्रक्रिया को ऋतुओं द्वारा पकाने के संदर्भ में भी सोचा जा सकता है । ऋतुओं के प्राप्त वर्णनों से ऐसा लगता है कि वाक् में प्राण और मन की प्रतिष्ठा करना, उनका विकास करना ही ऋतुओं का कार्य है । लेकिन विशेष बात यह है कि ऋतुएं केवल मन, प्राण और वाक् के त्रिक् तक ही सीमित नहीं हैं । इनके साथ कम से कम पर्जन्य, आपः, पयः, चक्षु, श्रोत्र आदि को स्वतन्त्र रूप में और जोडा गया है ।

          वैदिक साहित्य में पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग को ऋतुएं कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १२.१.३.११, १३.३.२.१, जैमिनीय ब्राह्मण २.१०८, २.१०९, २.१६२, २.३५६, २.३७५, ३.१५४, तैत्तिरीय संहिता ७.२.१.१, ७.४.७.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.१, ऐतरेय ब्राह्मण ४.१६ ) और इसके ६ दिनों के कृत्यों की व्याख्या ६ ऋतुओं के आधार पर की गई है । प्रत्येक ऋतु को समझने में हम इस वर्णन में दिए गए ऋतुओं के लक्षणों की सहायता लेंगे । यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि यद्यपि ऋतुओं के लक्षण वैदिक साहित्य में कईं स्थानों पर मिलते हैं ( शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४, ५.४.१.३, ८.१.१.५, जैमिनीय ब्राह्मण २.५१, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.७.२, ४.४.१२.१, ७.३.१०.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१, तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ ), लेकिन मैत्रायण्युपनिषद ७.१ में दिए गए लक्षण सबसे अधिक स्पष्ट हैं । ऐसा लगता है कि पृष्ठ्य षडह के ६ दिनों के लक्षणों के आधार पर ही भागवत पुराण के ६ आरम्भिक स्कन्धों की रचना हुई है । अतः वर्तमान लेखन में भागवत के ६ स्कन्धों की कथाओं का मुक्त रूप से उल्लेख किया जाएगा । जैसा कि सर्वविदित है, वसन्त ऋतु में प्रकृति में पुष्प खिलते हैं । अध्यात्म में इसका तात्पर्य यह लिया गया है कि वसन्त के माध्यम से जड प्रकृति में, जिसे वाक् कहा जा सकता है, प्राणों का, सूर्य का प्रवेश कराना है, वाक् में प्राणों की प्रतिष्ठा करनी है । वैदिक साहित्य में प्राणों की प्रतिष्ठा का कार्य वसिष्ठ ऋषि को सौंपा गया है । पृष्ठ्य षडह याग का यह प्रथम दिन है जिसके लक्षण रथन्तर साम, गायत्री छन्द, अज पशु आदि होते हैं । भागवत प्रथम स्कन्ध में परीक्षित् का जन्म अश्वत्थामा के बाण से मृत गर्भ के कृष्ण द्वारा पुनरुज्जीवित किए जाने से हुआ है । यह वाक् में प्राणों को प्रतिष्ठित करने के वैदिक कथन का पौराणिक रूपान्तर हो सकता है । फिर पुष्पित होने के रूपान्तर में परीक्षित् शृङ्गी ऋषि के दर्शन करता है । शृङ्ग का अर्थ सूर्य की किरणें, अतिमानसिक चेतना आदि हो सकते हैं । लेकिन परीक्षित् इस शृङ्गी को समुचित आदर देने में असमर्थ है क्योंकि उसके सिर पर मुकुट में कलि का वास है । कलि का अर्थ हो सकता है काल के साथ क्षय को प्राप्त होने वाली स्थिति । अतः इस स्थिति से बाहर निकलने का उपाय है अज स्थिति को प्राप्त होना । अज का शाब्दिक अर्थ है कि जहां कोई जन्म न हो, जहां से कोई ऊर्जा बाहर भी न निकले । आधुनिक विज्ञान में ऊर्जा को धारण करने के लिए केविटी बनाने का प्रयास किया जाता है । यदि हम सूर्य की किरणों को संधारित करना चाहें तो हमें आमने - सामने २ दर्पण लगाने होंगे । ऋग्वेद पुरुष सूक्त १०.९० में वसन्त ऋतु को आज्य कहा गया है । कर्मकाण्ड में आज्य में बन्द चक्षुओं से अपनी छाया का दर्शन किया जाता है । अतः यह आज्य अन्तर्मुखी होने की अवस्था है जिसे परीक्षित् द्वारा शुक ऋषि को प्राप्त कर लेने के रूप में दिखाया गया है । सोमयाग में यजमान - पत्नी रथ के पहिए के धुरे में आज्य लगाती है जिससे नाभि पर पहिए के घर्षण से आसुरी वाक् न निकले ।

          वैदिक साहित्य ( शतपथ ब्राह्मण १.३.२.८, १.५.३.१, १.६.१.८, तैत्तिरीय संहिता १.६.११.५, २.६.१.१ ) में ५ प्रयाजों को ५ ऋतुएं कहा गया है । इनमें प्रथम प्रयाज का लक्षण समित् या समिधा है ( तैत्तिरीय संहिता २.६.१.१) । ऐसा कहा जा सकता है कि सारे जड जगत में एक काम, विकसित होने की कामना विद्यमान है । हो सकता है कि वसन्त को समित् कहने से तात्पर्य इस बिखरे हुए काम को समित् का, समिति का रूप देने से हो । डा. फतहसिंह का विचार है कि एक सभा होती है जहां प्रत्येक सदस्य के विचार भिन्न हो सकते हैं । लेकिन समिति में सभी के समान विचार होते हैं । अतः बिखरे हुए काम को एक इकाई बनाना है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.६ से इसकी पुष्टि होती है ।

           शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में वसन्त को आयु कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में प्राण को वसन्त कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वसन्त को यावा कहा गया है तथा ७.३.१०.१ में वसन्त रस प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ के अनुसार वसन्त में वसुओं की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.३.२ में वसन्त में साराग वस्त्रों का उल्लेख है ।

          ग्रीष्म ऋतु के संदर्भ में, ग्रीष्म शब्द ग्रसन से बना है । ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा पृथिवी के रस को ग्रस लेता है । द्वितीय प्रयाज का नाम तनूनपात् है, तनु की रक्षा करने वाला । पृष्ठ्य षडह के द्वितीय दिन को ग्रीष्म कहा गया है । इस दिन के लक्षण बृहत् साम, पञ्चदश स्तोम, त्रिष्टुप् छन्द, भरद्वाज ऋषि, रुद्र देवता ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.७) आदि हैं । भरद्वाज ऋषि मन से सम्बन्धित है और भरद्वाज का कार्य बल, वीर्य का सम्पादन करना, दोषियों को दण्ड देना आदि है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८) । शरीर से स्तर पर हमें पता है कि क्रोध से हमारे अन्दर गर्मी उत्पन्न हो जाती है । अतः हो सकता है कि क्रोध में व्यय होने वाली ऊर्जा को ही सम्यक् रूप से नियन्त्रित करके मन के विकास में लगाना पडता हो । वैसे शुक्ल यजुर्वेद के अनुसार क्रोध रक्त में उत्पन्न होता है, मन्यु अण्डों या वीर्य में । क्रोध हमें जलाता है जबकि तनूनपात् प्रयाज कहता है कि तनु की रक्षा करनी है । पुराणों में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिय नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है । भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।

          शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.१.९ में ग्रीष्म के संदर्भ में मन को एक इकाई बनाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में ग्रीष्म को अयावा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सगर वात द्वारा ग्रीष्म से रक्षा का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है ।

          वर्षा ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह याग के तृतीय अह के लक्षणों में वैरूप साम, सप्तदश स्तोम, जगती छन्द, चक्षु, पर्जन्य ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.१ ) आदि हैं । प्रयाजों में तृतीय प्रयाज का नाम इड है । यह विचित्र है कि चक्षु वर्षा से सम्बन्धित है ( शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४) । कहा गया है कि जैसे वर्षा आर्द्र है, वैसे ही चक्षु भी आर्द्र है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में सप्तदश स्तोम के साथ जमदग्नि ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसका कार्य भूमा बनना, भूमानन्द प्राप्त करना है । भागवत पुराण के तृतीय स्कन्ध में कर्दम ऋषि व उसकी पत्नी देवहूति विष्णु के अवतार कपिल को पुत्र रूप में प्राप्त करते हैं तथा कपिल उन्हें मोक्ष की शिक्षा देते हैं । इस कथा के संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक साहित्य में यह प्रसिद्ध है कि वर्षा मण्डूक आदि की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है, वैसे ही जैसे भौतिक जगत में वर्षा जलती हुई पृथिवी और वृक्षों की अभीप्सा के फलस्वरूप होती है । भागवत पुराण में इस अभीप्सा को कर्दम - पत्नी देवहूति, देवों का आह्वान करने वाली के रूप में दिखाया गया है, ऐसा प्रतीत होता है । यह ध्यान देने योग्य है कि पृष्ठ्य षडह के केवल तृतीय दिन के ही नहीं, अपितु कईं दिनों के कईं मन्त्रों में देवहूति शब्द प्रकट होता है । आनन्द की वर्षा से कम्पन उत्पन्न होता है लेकिन इस कथा में कपिल के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि इस कम्पन को, कपि को नियन्त्रित करना है । अन्य कथा में कपिल के सामने अश्व स्थिर हो जाता है, लेकिन कपिल अपने क्रोध की अग्नि से, तृतीय चक्षु से सगर - पुत्रों को भस्म कर देते हैं । दूसरी ओर सहस्रबाहु अर्जुन द्वारा जमदग्नि की कामधेनु गौ को मांगने की कथा है जिसमें जमदग्नि सहस्रबाहु को कामधेनु देना अस्वीकार कर देते हैं लेकिन स्वयं सहस्रबाहु का प्रतिरोध नहीं करते, अपने क्रोध चक्षु का प्रयोग नहीं करते । तृतीय दिन के लक्षणों में जगती छन्द है जिसका चिह्न शतवत् सहस्रवत् होता है , किसी बडी शक्ति का शतवत्, सहस्रवत् होकर व्यक्तित्व के निचल स्तरों में बिखरना । वर्षा भी शतवत् सहस्रवत् होती है । लेकिन यह विचित्र है कि इस दिन का यह लक्षण होते हुए भी जमदग्नि सहस्रबाहु को यह अवसर नहीं देते । इस दिन के साम का नाम भी वैरूप है और यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि चक्षु का वैदिक साहित्य में क्या तात्पर्य हो सकता है । एक अर्थ तो सम्यक् दर्शन, सुदर्शन हो सकता है । सामान्य चक्षु बाहर से प्राप्त प्रकाश से देखते हैं, लेकिन आन्तरिक चक्षु स्वयं अपने अन्दर से उत्पन्न प्रकाश से देखता है । लेकिन यह चक्षु शतवत् सहस्रवत् क्यों नहीं बना, यह अन्वेषणीय है ।

          शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं के समावेश को दिखाया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में पर्जन्य को या चक्षु को वर्षा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में वर्षा ऋतु को एवा कहा गया है, ४.४.१२.२ में सलिल वात द्वारा वर्षा ऋतु की रक्षा का उल्लेख है, ७.३.१०.२ में वर्षा ओषधि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.१ में वर्षा ऋतु में आदित्यों की स्तुति का निर्देश है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से तथा हेमन्त मद से सम्बन्धित हो सकती है । इस क्रम से वर्षा या शरद् ऋतु लोभ से सम्बन्धित होनी चाहिए । हो सकता है कि सहस्रबाहु द्वारा जमदग्नि की कामधेनु मांगने में लोभ निहित हो ।

          शरद् ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ अह के लक्षणों में वैराज साम, एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द, अक्षर, श्रोत्र आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.४ ) । चतुर्थ प्रयाज का लक्षण बर्हि है । इस ऋतु के ऋषि के संदर्भ में मतभेद हो सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२१८ में एकविंश स्तोम से गोतम ऋषि को सम्बद्ध किया गया है जिसकी कामना प्रजा के लिए श्रद्धा प्राप्त करने की है । श्रद्धा का अर्थ है शृत, पके हुए को धारण करने वाला, अन्य शब्दों में सबसे अधिक पका हुआ अन्न, सोम । भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में पृथु द्वारा पृथिवी को नियन्त्रित करके उसे गौ का रूप धारण करने तथा सारी प्रजा, देव, ऋषि, गन्धर्व, सर्प आदि के लिए दुग्ध देने का वर्णन है । अन्य संदर्भों में कृष्ण द्वारा इन्द्रयष्टि याग को रोककर गौ व गोवर्धन पूजा और इन्द्र द्वारा क्रोध से अतिवृष्टि करने आदि का वर्णन है । इन सभी कथाओं में अन्नाद्य प्राप्ति का वैदिक और पौराणिक वर्णन स्पष्ट रूप से समान है । इसके अतिरिक्त चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव की कथा है । पृष्ठ्य षडह के चतुर्थ दिवस के कृत्यों में तृतीय सवन में षोडशी ग्रह की प्रतिष्ठा की जाती है । षोडशी ग्रह अक्षर होता है । हो सकता है कि षोडशी ग्रह का ध्रुव से सम्बन्ध हो । शरद ऋतु के लक्षणों में श्रोत्र ( शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४) का सम्मिलित होना उतना ही विचित्र है जितना वर्षा ऋतु में चक्षु का । जाबालदर्शनोपनिषद २.६ का कथन है कि श्रौत और स्मार्त से उत्पन्न विश्वास को आस्तिक्य कहा जाता है । शरद ऋतु में केवल श्रोत्र का उल्लेख है । श्रोत्र का अर्थ हो सकता है कि यदि हमारे व्यक्तित्व में आनन्द का कोई छोटा सा भी स्पन्दन उत्पन्न हो तो हम उसे सुरक्षित रखने में, उसका परिवर्धन करने में समर्थ हों, वैदिक साहित्य के अनुसार श्रोत्र दिशाओं में बदल जाएं । पौराणिक रूप में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई लगती है कि कार्तिक माहात्म्य में जालन्धर के आख्यान में पहले शिव के क्रोध की ज्वाला से ज्वालन्धर या जालन्धर की उत्पत्ति होती है और उसके पश्चात् शङ्खचूड की कथा आती है जिसके पास शिव का एक रक्षा कवच है जिससे वह अजेय है । कवच का अर्थ होता है चेतना के एक भाग का विशेष रूप से विकसित होकर सारे शरीर के अङ्गों की रक्षा में संलग्न होना । लगता है वैदिक साहित्य का श्रोत्र पौराणिक साहित्य में शङ्खचूड के रूप में प्रकट हुआ है ।

          भागवत पुराण आदि में शरद ऋतु में कृष्ण के गोपियों से रास के संदर्भ में, शरद ऋतु के मासों का नाम इष व ऊर्ज है । सोमयाग में सदोमण्डप के मध्य में उदुम्बर काष्ठ के औदुम्बरी नामक स्तम्भ की स्थापना की जाती है जो पृथिवी के ऊर्क् का प्रतीक है । वैदिक साहित्य में उदुम्बर शब्द की निरुक्ति इस रूप में की जाती है कि जो सब पापों से मुक्त कर दे ( अयं में सर्वस्मात् पापात् उदभार्षीद् इति ) । औदुम्बरी स्तम्भ के नीचे बैठकर सामवेदी ऋत्विज स्तोत्र गान करते हैं । अतः वैदिक साहित्य के अनुसार यह स्थिति गान की, रास की है । औदुम्बरी के पाप को दूर करने का तथ्य इसलिए और महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मैत्रायणी उपनिषद ७.१ आदि में शरद ऋतु के लक्षणों में पवित्र का उल्लेख है । वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास के रामचरितमानस में भी शरद् ऋतु में पाप से पवित्र होने, वर्षा ऋतु के जल के स्वच्छ होने आदि का वर्णन आता है ( वर्षा विगत शरद ऋतु आई । लक्ष्मण देखहु परम सुहाई । उदित अगस्त्य पन्थ जल सोखा । आदि ) । दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की साथ - साथ अर्चना भी यहां रहस्यपूर्ण है । लगता है पवित्र करने का कार्य गणेश का और आनन्द की स्थिति उत्पन्न करने का कार्य श्री का है । इस संदर्भ में चातुर्मास याग के अन्तिम चतुर्थ पर्व शुनासीर याग का भी उल्लेख यहां महत्त्वपूर्ण है । वैदिक साहित्य में शुनः का अर्थ शुनम् या शून्य और सीर का अर्थ श्री किया गया है । शरद् ऋतु से सम्बन्धित चतुर्थ प्रयाज के बर्हि लक्षण के संदर्भ में, जैसा कि अन्यत्र भी कहा जा चुका है, वैदिक साहित्य में एक प्रस्तर होता है, एक बर्हि । प्रस्तर को सीमित रोमांच और बर्हि को सार्वत्रिक रोमांच कहा जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता २.६.१.२ से इसकी पुष्टि होती प्रतीत होती है । इसके अनुसार बर्हि से देवयान पथ की प्राप्ति होती है । यह आगे देखना होगा कि क्या पितरों से सम्बन्धित स्वधा का बर्हि से कोई सम्बन्ध है ? क्योंकि हेमन्त ऋतु के प्रयाज का लक्षण देवों से सम्बन्धित स्वाहा है । दूसरी ओर शरद को बर्हि कहा गया है ।

           शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ में विद्योतन को शरद कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.६ में विश्वामित्र ऋषि को श्रोत्र व शरद के साथ सम्बद्ध किया गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.१ में शरद को ऊमा कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में शरद व्रीहि प्राप्त करती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.२ के अनुसार शरद् में ऋभुओं की स्तुति की जाती है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.१ में शरद ऋतु के संदर्भ में ऋभुओं के कनक समान वर्ण वाले वस्त्रों का उल्लेख है । शरद ऋतु में दु:खित नेत्रों के प्रसन्न हो जाने, शरद द्वारा अन्न प्रदान करने, जीवन प्रदान करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.६ में शरद ऋतु के लिए हृदे त्वा मनसे त्वा का उल्लेख है । ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में पूर्वी शरद: का उल्लेख आता है । यह पूर्वी शरद: कौन सी हैं, यह अन्वेषणीय है । इसके अतिरिक्त कई ऋचाओं में १०० शरदों द्वारा आयु प्राप्त करने के भी उल्लेख आते हैं ।

          पञ्चम हेमन्त ऋतु के संदर्भ में पृष्ठ्य षडह के पञ्चम दिन के लक्षणों में महानाम्नी साम, त्रिणव स्तोम, पंक्ति छन्द आदि हैं ( शतपथ ब्राह्मण ८.१.२.७ ) । वैदिक साहित्य में कहीं - कहीं हेमन्त व शिशिर ऋतुओं को मिला दिया गया है । मैत्रायणी उपनिषद में इस ऋतु के लक्षणों में विगत निद्रा, विजर, विमृत्यु, विशोक आदि भी हैं । पृष्ठ्य षडह में पंचम दिन महानाम्नी साम का गान होता है जिसके संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण में व्याख्या की गई है कि प्राण उत्पन्न होकर प्रजापति से नाम और अन्न की मांग करते हैं और प्रजापति उन्हें ५ बार नाम आदि प्रदान करते हैं । इस ऋतु का रहस्य विष्णुधर्मोत्तर पुराण में हेमन्त में वास्तु प्रतिष्ठा करने और शिशिर में नगर प्रवेश के निर्देश से खुलता है । शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि वास्तु रूप रौद्र प्राणों को स्विष्टकृत् बनाना है, वह अग्नि जो केवल इष्ट ही करे, अनिष्ट नहीं । नाम देने के संदर्भ में कहा गया है कि नाम वह है जिसे सुनकर सोए हुए प्राण जाग उठते हैं । भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भरत के जन्मान्तरों का तथा अन्तिम जन्म में जड भरत द्वारा सौवीरराज की शिबिका का वहन व उसे शिक्षा देने का वर्णन है । भरत का अर्थ है, दिव्य ज्योति का, आनन्द का भरण करने वाला । लेकिन विशेष बात यह है कि जहां कपिल कम्पन को केवल नियन्त्रित करता है, जड भरत तो आनन्द से भी जड अवस्था में ही रहता है ।

          भागवत के दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु के संदर्भ में कृष्ण द्वारा गोपियों के चीर हरण की कथा है । इस कथा की एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि गोपियां नग्न होकर आनन्द के जल में स्नान कर रहीं हैं । विद्या प्राप्ति रूपी वस्त्र इस आनन्द को नियन्त्रित कर सकता है । भागवत के पांचवें स्कन्ध में च्यवन व सुकन्या का आख्यान भी है और जैमिनीय ब्राह्मण में इस आख्यान को च्यवन के वास्तु में स्थित होने के रूप में वर्णन किया गया है । आख्यान में च्यवन इन्द्र पर नियन्त्रण करने के लिए मद असुर को उत्पन्न करता है । जैसा कि पहले कहा गया है, वसन्त ऋतु काम से, ग्रीष्म क्रोध से सम्बन्धित हो सकती है । अतः इस ऋतु के संदर्भ में मद का उल्लेख विचारणीय है ।

          शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में हेमन्त को पृष्ठ कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में हेमन्त को मन कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में हेमन्त को सब्दा: कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ७.३.१०.२ में हेमन्त व शिशिर माष व तिल प्राप्त करती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१९.२ में हेमन्त में मरुतों की स्तुति का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.२ में हेमन्त में अक्रुद्ध योद्धा की क्रुद्ध लोहित वर्ण की अक्षियों का उल्लेख है ।

          शिशिर ऋतु के संदर्भ में, पृष्ठ्य षडह के छठे दिन के लक्षणों में रैवत वारवन्तीयं साम, त्रयस्त्रिंशत् स्तोम आदि हैं । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इस ऋतु में नगर में प्रवेश का निर्देश है । स्कन्द पुराण का नागर खण्ड ( या षष्ठम् स्कन्ध ) नगर शब्द की निरुक्ति न - गर, गर से रहित के रूप में करता है । इस खण्ड के वर्णन के अनुसार नगर में सर्पों के विष से उपद्रव उत्पन्न नहीं होना चाहिए, सर्प पाताल में चले जाने चाहिएं । इसके अतिरिक्त इस खण्ड में तक्षक - पत्नी रेवती के जन्मान्तरों का भी वर्णन है । हानि पहुंचाने वाली तक्षक - पत्नी रेवती जन्मान्तर में क्षेमङ्करी बनी । इसके अतिरिक्त पुराणों में रेवती की विभिन्न कथाएं आती हैं । एक कथा में रेवती बहुत ऊंची थी, बलराम ने उसे हल की नोक से खींच कर छोटी बना लिया । व्यावहारिक रूप में रेवती क्या है, उसका नियन्त्रण कैसे करना है, यह अन्वेषणीय है । नागर खण्ड में पिप्पलाद आदि की उत्पत्ति के जो अन्य आख्यान हैं, उनकी भी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । भागवत पुराण दशम स्कन्ध में हेमन्त ऋतु तक की तो कथा आती है, उससे आगे अक्रूर के व्रज गमन और कृष्ण के मथुरा आगमन का वृत्तान्त आरम्भ हो जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक के आधार पर ऐसा लगता है कि यहां अक्रूर का उल्लेख शिशिर ऋतु से ही सम्बन्धित है तथा कृष्ण का मथुरा नगर में प्रवेश भी शिशिर ऋतु के संदर्भ में ही सोचा जाना चाहिए । शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में शिशिर को यज्ञ कहा गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ में दिव्य आपः को शिशिर कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.७.२ में शिशिर को सगर ( तुलनीय पुराणों का नगर ) कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.४ में शिशिर के संदर्भ में विवस्वत् वात का उल्लेख है । तैत्तिरीय आरण्यक १.४.३ में शिशिर ऋतु में देवलोक में दुर्भिक्ष, मनुओं के गृहों में उदक की उपलब्धि तथा वैद्युत प्रकृति का उल्लेख है । इस ऋतु में अक्षि अति ऊर्ध्व, अतिरश्ची रहती है । न रूप दिखाई देता है, न वस्त्र, न चक्षु ।

          वैदिक साहित्य में बहुत से स्थानों ( शतपथ ब्राह्मण २.४.४.२४, ५.४.१.३, ८.१.१.५, ८.६.१.१६, जैमिनीय ब्राह्मण २.५२, तैत्तिरीय संहिता ४.३.३.१, ४.४.१२.१ ) पर ऋतुओं का वर्णन दिशाओं के सापेक्ष किया गया है - वसन्त ऋतु पूर्व में, ग्रीष्म दक्षिण, वर्षा पश्चिम, शरद् उत्तर, हेमन्त व शिशिर मध्य में या ऊर्ध्व - अधो दिशाओं में । शतपथ ब्राह्मण १०.४.५.२ में ऋतुओं की कल्पना संवत्सर अग्नि के अङ्गों के रूप में की गई है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.१८, ७.४.२.२९, ८.२.१.१६, ८.३.२.५, ८.४.२.१४, ८.७.१.१, १०.४.३.१५, १३.६.१.१०, तैत्तिरीय संहिता ४.४.११.१, ५.३.१.१, ५.३.११.३, ५.४.२.१ आदि में चिति निर्माण के संदर्भ में चितियों का चयन ऊर्ध्वमुखी दिशा में करते हैं जिसमें वसन्त ऋतु प्रथम चिति में होती है और हेमन्त व शिशिर सबसे ऊपर की चिति में । इन्हें ऋतव्येष्टका नाम दिया गया है । यह अन्वेषणीय है कि क्या दिशाओं के सापेक्ष ऋतुओं का वर्णन तिर्यक दिशा में प्रगति को और ऊर्ध्व दिशा में ऋतव्येष्टकाओं का चयन ऊर्ध्वमुखी प्रगति को निर्दिष्ट करता है ? ऊर्ध्व दिशा में इष्टका चयन का अर्थ होगा कि जड तत्त्व में चेतन तत्त्व को लगातार प्रबल बनाया जा रहा है । जड तत्त्व में चेतन तत्त्व के प्रवेश के रूप में उषा को सर्वप्रथम लिया जाता है (तैत्तिरीय संहिता ४.३.११.५ में उषा को ऋतुओं की पत्नी कहा गया  है ) । फिर जैसे - जैसे दिन का विकास होता है, चेतन तत्त्व प्रबल होता जाता है । शतपथ ब्राह्मण २.२.३.९ में दिन के विकास का विभाजन ऋतुओं में किया गया है । वसन्त ऋतु प्रातःकाल, संगव ग्रीष्म, मध्यन्दिन वर्षा, अपराह्न शरत् और अस्त को हेमन्त कहा गया है । सोमयाग के एक दिन में स्तोमों का विभाजन भी इसी प्रकार है ।

          ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रायः ऋतुथा शब्द प्रकट हुआ है ( उदाहरणार्थ ऋग्वेद २.४३.१, ५.३२.१२, ६.९.३ आदि ) । तैत्तिरीय संहिता में संभवतः ऋतुस्था शब्द के द्वारा ऋतुथा शब्द की व्याख्या की गई है । शतपथ ब्राह्मण २.२.३.८ आदि में वर्षा ऋतु में अन्य सब ऋतुओं का समावेश दिखाया गया है और यह विचारणीय है कि इस आधार पर ऋतुथा का रूप क्या हो सकता है । तैत्तिरीय संहिता २.१.११.२ में इन्द्र द्वारा मरुतों की सहायता से ऋतुधा करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.६.९.३ में अश्व के ऋतुथा बनाए गए अङ्गों का ही अग्नि में हवन करने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.२.१२.१ में शमिता द्वारा पशु के अङ्गों को ऋतुधा काटने का निर्देश है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.८.१ में यज्ञायज्ञीय साम द्वारा ऋतुस्था स्थिति की प्राप्ति का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.६.५ व तैत्तिरीय आरण्यक ४.१९.१ में ऋतुस्था अग्नि के रूप के कल्पन में उसके शिर आदि अङ्गों में वसन्त आदि ऋतुओं की प्रतिष्ठा की गई है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.२.२ में स्वधिति/छुरी द्वारा वनस्पति से यूप के तक्षण के संदर्भ में ऋतुथा होकर स्वाद ग्रहण करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.३.४ में वनस्पति रूपी अग्नि द्वारा स्वयं ऋतुथा होकर हवि के आस्वादन का निर्देश है । अथर्ववेद १३.३.२ में वातों को ऋतुथा बनाने का निर्देश है । अथर्ववेद २०.१२५.३ में स्थूल के ऋतुथा बनने की संभावना को नकारा गया है ।

          शतपथ ब्राह्मण २.४.४.२५, ११.२.७.२, ११.२.७.३२ आदि में ५ ऋतुओं का तादात्म्य ५ ऋत्विजों से स्थापित किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.९ के अनुसार यजमान सूर्य है और ऋत्विज ऋतुएं । ऋतु रूपी ऋत्विज सूर्य रूपी यजमान की सहायता से ही स्वर्ग को आरोहण कर सकते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.९.४ में वैश्वसृज दक्षिणा के संदर्भ में ऋतुओं के सदस्य बनने का उल्लेख है ।

          यज्ञ कर्म में ऋतुओं के प्रयोग के संदर्भ में, सोमयाग में प्रातःकाल सर्वप्रथम ऋतुयाज नामक कृत्य होता है जिसमें विभिन्न ऋत्विज ऋतुग्रहों द्वारा सोम की आहुति देते हैं । इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.३, तैत्तिरीय संहिता ६.५.३.१, ऋग्वेद १.१५, २.३७ द्रष्टव्य हैं । विशेष बात यह है कि ऋतु ग्रहों के पाद अश्व के खुर जैसे होते हैं और उन्हें द्विमुखी कहा गया है । यह प्रसिद्ध है कि अश्व अपने खुरों से सोम का, सुरा का सम्पादन, सिञ्चन करता है । शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.७ में ऋतुग्रहों को द्विमुखी बताया गया है । पुराणों में द्विमुखी गौ के दान के निर्देश आते हैं । कहा जाता है कि प्रसूत काला गौ, जिसकी योनि से वत्स का सिर बाहर निकल रहा हो, वह द्विमुखी गौ है । ऋतुओं के संदर्भ में इस तथ्य की सम्यक व्याख्या अपेक्षित है । ऋतु याज में वौषट् उच्चारण के संदर्भ में ऐतरेय ब्राह्मण ३.६ का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि वौषट् शब्द के उच्चारण में असौ तो वौ हो सकता है और षट् ६ ऋतुएं । इस प्रकार संवत्सर को ऋतुओं में प्रतिष्ठित करते हैं । यज्ञ में वौषट् कहकर असुरों का नाश किया जाता है । ऋतुयाज में अनुवषट्कार ( सोमस्याग्ने वीहि वौषट् ) के उच्चारण का निषेध है ( शतपथ ब्राह्मण ४.३.१.८, ऐतरेय ब्राह्मण २.२९ ) । शतपथ ब्राह्मण ४.५.५. ८ में ऋतुग्रहों का सम्बन्ध एकशफ पशुओं से जोडा गया है, अन्य प्रकार के पशुओं का अन्य पात्रों से । जैमिनीय ब्राह्मण १.२४६ में ऋतुओं को मृत्यु - रूप संवत्सर के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता २.६.९.१ व ६.६.१.५ में अग्नि को ऋतुओं के मुख कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ के अनुसार वृत्र का वध करते समय इन्द्र से ऋतुएं दूर भाग गई । तब ऋतुपात्र द्वारा मरुत्वतीय ग्रहण करने पर उसने ऋतुओं को जाना । ऐतरेय ब्राह्मण २.२९ में ऋतुयाज के संदर्भ में ऋतुना को प्राण से और ऋतुभि: को अपान व व्यान से सम्बद्ध किया गया है ।

          शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.२८ में अश्वमेध के संदर्भ में प्रत्येक ऋतु में आलभन किए जाने वाले पशुओं के देवता आदि दिए गए हैं । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१८.१ में ऋतुओं के पशु जहका का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.९.३ में अश्वमेध में ऋतुओं की पुनः प्राप्ति के लिए ३ पिशङ्ग वासन्त पशुओं के आलभन का निर्देश है ।

          तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ आदि में प्रवर्ग्य के संदर्भ में ऋतुओं के लक्षणों का कथन है । प्रवर्ग्य इष्टि घर्म के विकास से सम्बन्धित होती है । अतः इसमें ऋतुओं सम्बन्धी कथन भी घर्म द्वारा उत्पन्न ऋतुओं से सम्बन्धित होने चाहिएं । ऐसा लगता है कि ऋतुएं स्थूल भौतिक स्तर से लेकर ऊपर के सूक्ष्म होते जाते स्तरों के विषय में भी ठीक बैठती हैं । अथर्ववेद ९.५.३१ में ऋतुओं के नाम क्रमशः निदाघ, संयन्त, पिन्वन्त, उद्यन्त, अभिभू हैं । यह नाम अज पञ्चौदन को पकाने के संदर्भ में हैं । अथर्ववेद ११.३.१७ में बार्हस्पत्य ओदन को पकाने के संदर्भ में ऋतुओं को पकाने वाली तथा घर्म को अभीन्धन करने वाला कहा गया है ।

          शतपथ ब्राह्मण २.१.३.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.१०.५ आदि में वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा को देव ऋतुएं व शरद, हेमन्त व शिशिर को पितर ऋतुएं कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण २.६.१.२ के अनुसार वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा वृत्र से लडने में जीत गई, लेकिन शरद्, हेमन्त व शिशिर की मृत्यु हो गई । उन्हें पितृयज्ञ द्वारा पुनः जीवित करना पडता है । शतपथ ब्राह्मण २.६.१.४ में ६ ऋतुओं को ही पितर कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.४३ में ऋतुओं को विश्वेदेवा कहा गया है ।      तैत्तिरीय संहिता में षड्-वा ऋतव: वाक्य की अत्यधिक पुनरावृत्ति की गई है जो इस वाक्य के अन्तर्निहित महत्त्व की ओर इंगित करता है ।

          यह विचारणीय विषय है कि ऋतुओं की व्याख्या में सरस्वती रहस्योपनिषद का परिचित सूत्र अस्ति, भाति, प्रिय, नाम व रूप कितना सहायक हो सकता है । अन्य चिर परिचित सूत्र अन्नमय, प्राणमय आदि ५ कोशों का है । अन्य सूत्र मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का हो सकता है ।

 

प्रथम लेखन : २१-१२-२००४ ई.

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