पुराण विषय अनुक्रमणिका (भूमिका) Puraanic Subject Index (Introduction) by Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar Foreword by Dr. Pushpendra Kumar Foreword by Dr. Harihar Trivedi Foreword by Sh. Vishwambhar Dev Shastri Introduction to published parts of index Criticism of the first published part of index List of Puraanas and Publishers
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Foreword by Dr. Pushpendra Kumar
प्राक्कथन विकसित समाज अपने कुछ आदर्शों पर आधारित रहता है । ये आदर्श कौन से हैं, यह उस समाज में उपलब्ध दन्तकथाओं से परिलक्षित होता है । इन दन्तकथाओं का संकलन जिन ग्रन्थों में होता है, उन्हें पुराण या अंग्रेजी में माइथालाजी कहा जाता है । लेकिन ऐसा नहीं है कि यह ग्रन्थ केवलमात्र समाज में प्रचलित व्यवहारों का, नियमों का दर्पण मात्र ही हों । इन कथाओं के पीछे पर्दे में कुछ योग, विज्ञान, दर्शन आदि के गम्भीर तथ्य भी छिपे रहते हैं, ऐसी परम्परागत रूप से मान्यता रही है । भारत में जो मुख्य रूप से १८ पुराणों का संग्रह प्रसिद्ध है, उसके बारे में तो यह भी मान्यता है कि वह वेदों की परोक्ष रूप से व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं, वेदों के जिन शब्दों का अर्थ ज्ञात नहीं है, उन शब्दों के अर्थ कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं । वैदिक शब्दों के अर्थोंको समझने के लिए आज एकमात्र यास्क का निरुक्त ही उपलब्ध है और उसमें वेद के कुछ एक शब्द ही लिए गए हैं । उन शब्दों की व्याख्या भी ऐसी है जो सामान्य रूप से बोधगम्य नहीं है । दूसरी ओर, पुराणों की कथाएं सर्वसुलभ हैं और उन कथाओं के रहस्यों को समझ कर शब्दों के मूल अर्थ तक पहुंचा जा सकता है । लेकिन यह मानना होगा कि इस दिशा में गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है । पुराणों ने भारतीय समाज के लिए एक व्यवहार शास्त्र भी प्रस्तुत किया है । पुत्र का माता - पिता के साथ, पत्नी का पति के साथ, गुरु का शिष्य के साथ, राजा का प्रजा के साथ, भृत्य का स्वामी के साथ व्यवहार कैसा हो, यह सब पुराणों में उपलब्ध है । समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि ४ वर्णों की कल्पना की गई है जिनके अलग - अलग कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं । यह वर्ण व्यवस्था उचित है या नहीं, इसमें विवाद नहीं हो सकता, लेकिन यह जन्म के आधार पर हो या कर्म के आधार पर, इस विषय में लगता है पुराणों में भी अन्तर्विवाद है । कहीं जन्म के आधार पर मानी गई है, कहीं कर्म को प्रधानता दी गई है, कहीं जन्म से प्राप्त वर्ण को कर्मों द्वारा परिवर्तित करते हुए दिखाया गया है । समाज में लोगों की श्रद्धा को किस ओर उन्मुख किया जाए, इसका भी प्रयास पुराणों में किया गया है । पुराणों में विभिन्न देवताओं के पूजन - अर्चन की विधि का विस्तार से वर्णन है । मूर्ति निर्माण में देवता की मूर्ति कैसी बनानी चाहिए, उसकी प्रतिष्ठा के लिए मन्दिर का स्वरूप कैसा होना चाहिए, यह सब पुराणों में वास्तुकला के अन्तर्गत मिलता है । पुराणों में प्रस्तुत देवताओं की साकार मूर्तियों का स्वरूप बहुत लम्बे काल से विवाद का विषय रहा है, विदेशी आक्रमणकारियों की घृणा का पात्र बना है, लेकिन अनुमान यह है कि वैदिक साहित्य में देवताओं के जिन गुणों की व्याख्या शब्दों में की गई है, पुराणों में उसका सरलीकरण करते हुए उसे एक साकार रूप दिया गया है । पुराणों में दन्तकथाओं में अन्तर्निहित राजाओं की वंशावलियां भी प्राप्त होती हैं और काल निर्धारण के संदर्भ में आधुनिक पुरातत्त्वविदों के बीच यह वंशावलियां विवाद का विषय रही हैं । कहा जाता है कि भूगर्भ से प्राप्त शिलालेखों से राजाओं का जो कालनिर्धारण होता है, वह पौराणिक आधार पर किए गए कालनिर्धारण से मेल नहीं खाता । अतः पुराणों की कथाओं के पात्र किसी वास्तविक घटना के आधार पर लिए गए हैं या काल्पनिक प्रस्तुति हैं, इसका निर्णय करना कठिन है । पुराणों में भूगोल का विस्तृत वर्णन मिलता है । लेकिन यह भूगोल कहीं तो पृथिवी के आधुनिक मानचित्र से मेल खाता है, कहीं नहीं । ऐसा लगता है कि भूगोल के इस विस्तृत वर्णन के पीछे पुराण प्राचीन भारतीय विचारधारा को प्रस्तुत कर रहे हैं । पुराणों में मुगलकालीन तथा अंग्रेजों के शासनकाल तक के राजाओं के नाम भी उपलब्ध होते हैं । भविष्य पुराण में तो यह वर्णन अतिशयोक्ति तक पहुंच गया है और कहा जाता है कि इस पुराण का मूल रूप उपलब्ध न होने के कारण कुछ विद्वानों ने नई कल्पना करके इसकी क्षतिपूर्ति की है । तथ्य चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह पुराण भी वेद व्याख्या प्रस्तुत करने में सबसे अग्रणी है और इसका जो अंश कल्पित प्रतीत होता है, वह भी बहुत सारगर्भित है । भारतीय समाज का आधार होते हुए भी पुराणों के मन्थन के उतने गम्भीर प्रयास नहीं किए गए हैं जितने अपेक्षित थे । श्रीमती राधा गुप्ता, श्रीमती सुमन अग्रवाल व श्री विपिन कुमार द्वारा प्रस्तुत पुराण विषय अनुक्रमणिका के इस भाग में अ से लेकर ह तक के पुराणों के विषयों और नामों का संकलन किया गया है । आशा है यह ग्रन्थ अध्येताओं को, चाहे वह किसी भी क्षेत्र के हों, नई सामग्री प्रस्तुत करेगा । इससे पहले इन्हीं लेखकों द्वारा २ ग्रन्थ ° पुराण विषय अनुक्रमणिका ° ( वैदिक टिप्पणियों सहित ) प्रकाशित किए जा चुके हैं, लेकिन टिप्पणी लेखन का कार्य बहुत बृहत् है और यह उचित ही है कि अनुक्रमणिका को बिना टिप्पणियों के ही प्रकाशित कर दिया जाए । इस ग्रन्थ में पुराणों के बहुत से विषयों को चुना गया है, लेकिन विषयों के शीर्षकों का चुनाव बृहत् कार्य है और उसे भविष्य में और अधिक बृहत् रूप में दिया जा सकता है । लेखक - त्रय ने अपना संकलन केवल पुराणों तक ही सीमित नहीं रखा है । पुराणों के अतिरिक्त उन्होंने वाल्मीकि रामायण, योगवासिष्ठ, महाभारत, कथासरित्सागर, लक्ष्मीनारायण संहिता जैसे ग्रन्थों से भी सामग्री का चयन किया है । लक्ष्मीनारायण संहिता ग्रन्थ भाषा की दृष्टि से अपेक्षाकृत अर्वाचीन काल का प्रतीत होता है लेकिन लेखकों ने अपने संकलन में उसे स्थान देना उचित समझा है । भविष्य के इतिहासकारों के लिए यह एक चेतावनी का विषय है । आज से हजार - दो हजार वर्ष पश्चात् के इतिहासकार कह सकते हैं कि लक्ष्मीनारायण संहिता भी एक पुराण है क्योंकि इस समय के अनुक्रमणिका बनाने वाले लेखक - त्रय ने इसे अपनी अनुक्रमणिका में स्थान दिया है । लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि किसी ग्रन्थ के पुराण कहलाने के लिए पांच या दस लक्षण निर्धारित कर दिए गए हैं । जिन ग्रन्थों में यह सारे लक्षण मिलेंगे, केवल उन्हें ही पुराण कहा जा सकता है । अतः लेखक - त्रय अपने संकलन में चाहे जिस ग्रन्थ को स्थान दें, उन्हें पुराणों की संज्ञा नहीं दी जा सकती । मैं कामना करता हूं कि लेखक - त्रय इस अनुक्रमणिका का शेष भाग भी शीघ्र पूरा करने में समर्थ हों । यह कार्य बहुत ही श्रमसाध्य तथा शोधपरक है । इन ग्रन्थों के आने से भारतीय विद्या के विद्वानों तथा शोध छात्रों को लाभ होगा, ऐसा मेरा विश्वास है । भगवान् उन्हें सामर्थ्य और सुविधा प्रदान करे, इसी अभिलाषा के साथ मैं उन्हें बधाई भी देता हूं तथा उत्साहवर्धन भी करता हूं । संयोगवश, लेखक - त्रय का सम्बन्ध भी मेरे पैतृक जन्मस्थान से ही है । पुष्पेन्द्र कुमार २४-१०-२००४ ई. |