PURAANIC SUBJECT INDEX (From Mahaan to Mlechchha ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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मारीच कथा के माध्यम से मोह की प्रबलता तथा आत्मज्ञान से मोह के विनाश का चित्रण - राधा गुप्ता
अरण्यकाण्ड (अध्याय 31 से 45 तक) में मारीच राक्षस की कथा का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है – कथा का संक्षिप्त स्वरूप सीता को अपनी पत्नी बनाने के लिए रावण ने जब सीता के हरण का निश्चय किया, तब वह हरण में सहायता के लिए अपने मित्र ताटका – पुत्र मारीच के पास पहुँचा। मारीच बडी बडी मायाओं का प्रयोग करने में कुशल था और समुद्र के दूसरे तट पर आश्रम बनाकर रहता था। रावण ने मारीच को अपना सम्पूर्ण अभिप्राय निवेदन किया और मारीच को कहा कि तुम स्वर्णमृग बनकर राम के आश्रम में जाकर सीता के सामने विचरण करो। स्वर्णमृग पर मोहित होकर सीता जब स्वर्णमृग को पकडने के लिए राम से आग्रह करेगी, तब तुम राम को आश्रम से दूर ले जाना और राम के दूर चले जाने पर मैं सुखपूर्वक सीता का हरण कर लूँगा। रावण के अभिप्राय को जानकर मारीच ने उसे पूर्व में घटित हुई घटना का वर्णन करते हुए राम के अद्भुत प्रभाव को बतलाया और सीताहरण के उद्योग से रावण को विरत करने का यथासम्भव प्रयत्न भी किया। परन्तु किसी भी तरह रावण के न मानने पर राम के हाथों अपने वध को निश्चित मानकर मारीच पंचवटी में पहुँचा और स्वर्णमृग बनकर सीता के सामने विचरने लगा। स्वर्णमृग के अद्भुत रूप को देखकर सीता को बडा विस्मय हुआ और उन्होंने राम – लक्ष्मण को पुकारा। लक्ष्मण ने मारीच के कपटपूर्ण वेष को पहचान लिया परन्तु चूंकि मारीच के छल से सीता की विचारशक्ति हर ली गई थी, अतः सीता ने स्वर्णमृग को जीवित अथवा मृत पकडने के लिए राम से आग्रह किया। लक्ष्मण के कथन को ध्यान में रखते हुए राम ने मारीच के वध का निश्चय किया और वे मृग के पीछे पीछे आश्रम से बाहर निकल गए। कपट रूप धारी मारीच बार बार छिपता हुआ जब राम को बहुत दूर ले गया, तब राम ने अपने ब्रह्मास्त्र से उसका वध कर दिया। मरते समय मारीच ने रावणण के कार्य को सम्पन्न करने के लिए अर्थात् लक्ष्मण को भी आश्रम से दूर हटाने के लिए उच्च स्वर से हा सीते, हा लक्ष्मण कहकह पुकारा। लक्ष्मण यद्यपि मारीच की माया को जानते थे, परन्तु सीता के मार्मिक वचनों ने उन्हें भी आश्रम से बाहर निकलने के लिए बाध्य कर दिया। अतः वे राम के पास चले गए। कथा की प्रतीकात्मकता कथा को समझने के लिए प्रतीकों को समझना आवश्यक होगा। 1 – मारीच – मारीच शब्द मरीचि से बना है। मरीचि का अर्थ है – मृगतृष्णा (मृगमरीचिका) या भ्रम। अतः मृगतृष्णा या भ्रम से जो उत्पन्न होता है - वह मारीच है। अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को भूल जाने के कारण अपने आप को शरीर मान लेना ही मनुष्य का सबसे बडा भ्रम है और इस भ्रम के कारण मनुष्य के मन – बुद्धि में जो मोह उत्पन्न होता है, उसे ही यहाँ मारीच कहकर संकेतित किया गया है। मोह शब्द मुह् धातु से बना है, जिसका अर्थ है – मूर्च्छा, बेहोशी, जडता, मूढता, मुग्धता अथवा अज्ञानता आदि। अतः व्यावहारिक स्तर पर इस मोह का अर्थ हो सकता है – मन में रहने वाले मेरा मेरे के प्रति मन का जुडाव। मेरा शरीर, मेरे बच्चे, मेरा घर, मेरा पैसा, मेरा नाम, मेरा पद, मेरा यश अर्थात् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मेरा – मेरा – मेरा और उस मेरा में आसक्ति। रामकथा में ही विश्वामित्र की कथा के अन्तर्गत मारीच को ताटका नामक राक्षसी और सुन्द नामक दैत्य का पुत्र कहा गया है। ताटका का अर्थ है – मान्यता और सुन्द का अर्थ है - अशुद्ध मन। अतः मैं शरीर हूं - यह विचार जब एक मान्यता (ताटका) बनकर मनुष्य के चित्त (गहरे मन) में अंकित हो जाता है, तब वही मान्यता अशुद्ध मन( सुन्द दैत्य) से संयुक्त होने पर मोह को उत्पन्न करती है, जिसे कथा में मारीच कहा गया है। चूंकि यह मोह एक प्रबल विकार है, इसलिए कथा में मारीच को राक्षस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शरीर का अभिमानी मन इस मोह से मित्रता रखता है, इसलिए कथा में रावण को (शरीर के अभिमानी मन को ) मारीच का (मोह का) मित्र कहा गया है। मारीच को बडी – बडी मायाओं के प्रयोग में कुशल कहकर यह संकेत किया गया है कि मोह कभी भी किसी एक रूप में मनुष्य के सामने नहीं आता। यह हर बार एक नया रूप धारण कर लेता है, इसलिए मनुष्य की प्रकृति (मन – बुद्धि अथवा सोच ) नए – नए रूपों को पहचान नहीं पाती और मोह के चंगुल में फँस जाती है। 2 – मारीच का स्वर्णमृग बनना – मारीच को स्वर्णमृग बनाकर वास्तव में उसी मोहस्वरूपता को ही संकेतित किया गया है। स्वर्ण का अर्थ है – सोना(एक धातुविशेष)। जैसे स्वर्ण मनुष्य को बहुत आकर्षित करता है, वैसे ही मोह (मेरा) भी मनुष्य मन को बहुत आकर्षित करता है। मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा बच्चा, मेरा धन, मेरा नाम, मेरा यश मनुष्य के भीतर अधिकार भाव को उत्पन्न करता है और अज्ञान में रहने पर यही अधिकार भाव मनुष्य को बहुत आकर्षित करता तथा सुख की प्रतीति कराता है। मृग शब्द मृग् धातु से बना है, जिसका अर्थ है – अन्वेषण या खोज। मोह या मेरा एक ऐसा प्रबल विकार है जो सब प्रकार से खोज करने योग्य है क्योंकि खोज करने पर ही पता चलता है कि वास्तव में मेरा क्या है। जब मनुष्य स्वयं को आत्मरूप समझता है, तब उसे यह भलीभाँति ज्ञात हो जाता है कि शरीर, परिवार, सम्बन्ध, घर, नाम, रूप, पद तथा धन आदि कुछ भी मेरा नहीं है। मैं आत्मा तो आत्मगुणों का अनुभव करने के लिए शरीर, परिवार, सम्बन्ध, घर, नाम, रूप, पद, धन – सबका कुछ समय के लिए केवल उपयोग करता हूँ और फिर सब कुछ छोडकर अपनी अगली यात्रा पर निकल जाता हूँ। इसके विपरीत जब मनुष्य स्वयं को शरीर समझता है, तब भी उसे यह भलीभाँति ज्ञात होता है कि कुछ भी यहाँ मेरा नहीं है क्योंकि शरीर तक को मुझे यहीं छोडना पडता है, फिर अन्य सब व्यक्तियों अथवा वस्तुओं की तो बात ही कहाँ है। अतः मोह बहुत आकर्षक भी है और मृग्यमाण भी। आकर्षक और मृग्यमाण होने के कारण ही मारीच रूपी मोह (मेरा) को यहाँ स्वर्णमृग के रूप में प्रस्तुत किया गया प्रतीत होता है। 3- स्वर्णमृग के प्रति सीता की मुग्धता – पवित्र मन – बुद्धि अथवा पवित्र विचार अथवा पवित्र सोच को ही रामकथा में सीता कहा गया है। यह पवित्र सोच आत्मज्ञान (राम) की शक्ति है क्योंकि पवित्र सोच के माध्यम से ही जीवन में आत्म – गुणों की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु यह पवित्र सोच भी मोह के वशीभूत हो जाती है क्योंकि मोह (मेरा – मेरे के प्रति आसक्ति) एक ऐसा प्रबल विकार है जो आकर्षण की अद्भुत माया फैलाकर जीवन में प्रविष्ट होता है। मनुष्य की पवित्र सोच (मन बुद्धि) उस माया (भ्रम) को पहचान नहीं पाती और अनायास आकर्षण से बँध जाती है। 4- लक्ष्मण द्वारा कपटमृग को पहचान लेना - संकल्पों अथवा विचारों की निर्माता शक्ति को ही रामकथा में लक्ष्मण कहकर संकेतित किया गया है। यहाँ यह संकेत किया गया है कि मनुष्य की विचारशक्ति (लक्ष्मण) यद्यपि मोह के कपटपूर्ण स्वरूप को पहचान लेती है और उसके प्रति मनुष्य को सचेत भी करती है, परन्तु मोह में फँस चुकी अथवा मोह के अधीन हो चुकी मनुष्य की सोच (सीता) उस समय इतनी प्रभावी हो जाती है कि उसके समक्ष विचारशक्ति भी कुछ नहीं कर पाती, मानो पंगु हो जाती है। 5- राम द्वारा मारीच का वध – आत्मज्ञान अथवा आत्मस्वरूप में अवस्थिति को ही रामकथा में राम के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आत्मज्ञान का अर्थ है – मनुष्य को यह समझ में आ जाना कि मैं शरीर नहीं हूं, अपितु शरीर को चलाने वाला, शरीर का स्वामी चैतन्यशक्ति आत्मा हूँ। शरीर मेरे पास एक श्रेष्ठतम उपकरण की भाँति है जिसका मुझे श्रेष्ठतम उपयोग करना है और शरीर रूप उपकरण का श्रेष्ठतम उपयोग यही है कि मैं आत्मा आत्मगुणों – सुख – शान्ति – शक्ति – शुद्धता – ज्ञान – प्रेम तथा आनन्द को सबके साथ बाँटता हुआ ही समस्त कर्त्तव्य कर्म करूँ। स्वयं को आत्मा जान लेने पर जब मनुष्य दूसरों को भी आत्मदृष्टि से देखने लगता है, तब शरीर से सम्बन्ध रखने वाले सभी सम्बन्धों का पूर्ण ध्यान रखते हुए तथा सभी सम्बन्धों में सम्यक् व्यवहार करते हुए भी मनुष्य मोह में नहीं फँसता। अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि स्वयं मोह ही आत्मज्ञान के समक्ष उपस्थित होने से डरने लगता है क्योंकि आत्मज्ञान के समक्ष मोह के उपस्थित होने का अर्थ ही है – मोह की समाप्ति, मोह की मृत्यु। इसे ही कथा में राम द्वारा मारीच के वध के रूप में इंगित किया गया है। कथा का अभिप्राय बहुत समय से (अर्थात् अनेकानेक जन्मों से ) अपने आपको शरीर मानते रहने के कारण मनुष्य के मन के भीतर यह सुदृढ अभिमान कि मैं शरीर हूँ - एक संस्कार (एक छाप) के रूप में अंकित हो जाता है और इसी देहाभिमान के कारण मनुष्य के भीतर पहले मैं – मेरा और स्वार्थ का विचार उत्पन्न होता है, जो धीरे धीरे काम – क्रोध – लोभ – मोह – मदज – मत्सर – राग – द्वेष – ईर्ष्या तथा आसक्ति जैसे सभी विकारों को उत्पन्न कर देता है। धीरे – धीरे ये सब विकार भी मन के भीतर जडें जमालेते हैं , जिन्हें संस्कार के रूप में जाना जाता है। इन सभी संस्कारों का विनाश करना एकमात्र आत्मज्ञान से संभव होता है क्योंकि आत्मज्ञान में स्थित होकर ही मनुष्य अपनी सम्पूर्ण प्रकृति (मन –बुद्धि – चित्त – अहंकार आदि) का स्वामी बन जाता है और अपने प्रत्येक विचार का निर्माता और नियन्ता बनकर चित्त से बाहर निकले हुए एक – एक विकार को अपने ज्ञानयुक्त श्रेष्ठ विचार से विनष्ट करने में समर्थ हो जाता है। अतः पञ्चवटी में सुखपूर्वक रहते हुए राम, लक्ष्मण तथा सीता के समक्ष मारीच नामक राक्षस के आगमन और राम द्वारा मारीच के वध की प्रस्तुत कथा द्वारा दो संकेत स्पष्ट रूप से किए गए हैं। पहले संकेत के रूप में यह स्पष्ट किया गया है कि भले ही मनुष्य आत्मज्ञान में स्थित हो गया हो, अपने विचारों का निर्माता तथा नियन्ता बन गया हो तथा उसकी प्रकृति (सोच) भी पूर्णतः पवित्र तथा निर्मल हो, परन्तु जब तक चित्त में विकारों के संस्कार पडे हुए हैं, तब तक वे विकार चित्त से बाहर निकलेंगे और मनुष्य के जीवन को प्रभावित भी करेंगे। अन्तर केवल इतना होगा कि आत्मज्ञान में रहने पर मनुष्य अपने ज्ञान रूप शस्त्रों की सहायता से उन्हें निरन्तर विनष्ट करता जाएगा और शीघ्र ही सभी विकारों को विनष्ट करके जीवन में सुराज्य को स्थापित कर लेगा। दूसरा संकेत यह किया गया है कि मोह नामक विकार इतना सुन्दर स्वरूप धारण करके मनुष्य के जीवन में उपस्थित होता है कि मनुष्य अकस्मात् उसे पहचान नहीं पाता और मनुष्य की प्रकृति (सोच), चाहे वह कितनी भी पवित्र हो, उस सुन्दर स्वरूप पर मुग्ध हो जाती है। स्वर्णमृग को देखकर सीता की मुग्धता के रूप में इसी तथ्य को इंगित किया गया है। मोह नामक विकार इतना प्रबल होता है कि वह कुछ क्षणों के लिए मनुष्य की विचारशक्ति को भी प्रभावहीन कर देता है अर्थात् मनुष्य समझ तो लेता है कि यह मोह है, जो उसे वशीभूत कर रहा है परन्तु समझकर भी वह तत्क्षण उसका विनाश नहीं करता, अतः विचारशक्ति मानो पंगु हो जाती है। लक्ष्मण द्वारा स्वर्णमृग के कपटी वेश को पहचान लेने पर भी तत्काल उसे न मारने के रूप में इसी तथ्य को व्यक्त किया है। आत्मस्थ मनुष्य शरीर और शरीर के सम्बन्धों में कभी आसक्त नहीं होता, इसलिए जीवन – व्यवहार में अकस्मात् प्रकट हुए मोह को भलीभाँति देख लेना ही उसके लिए पर्याप्त होता है और वही मोह की मृत्यु भी है। राम की दृष्टि से स्वर्णमृग का बार - बार अदृश्य हो जाना परन्तु दृश्य होते ही राम द्वारा उसका वध कर देना इसी तथ्य को संकेतित करता है। प्रथम लेखन – 3 – 9-2014ई.(भाद्रपद शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् 2071) The Power and Destruction of Delusion as Described in the Story of Demon Mareechi - Radha Gupta In Aranya Kanda (Chapter 31 to 45) of Valmiki Ramayana, there is a story of demon Maareecha. It is said that when Ravana decided to kidnap Sita, he approached Maareecha for help. Ravana told him his desire and requested him to go to panchavati in the form of a golden deer. Ravana had made a plan that Sita will be attracted to golden deer and Rama will run after it to get it. Therefore, as soon as Rama will go far away from the hermitage, he will enter and kidnap Sita. After listening to this plan, Maareecha tried his best to dissuade Ravana from doing so and highlighted the powers of Rama. But when Ravana did not accept his advice, he ultimately had to go to Panchavati in the form of golden deer as per Ravana’s plan. Mareecha wandered in front of Sita. She got attracted and desired to get that deer. In the meantime, Lakshmana observed that the deer is an illusion, so he suggested them to be cautious but Sita was so keen to have that deer, live or dead, that Rama decided to chase and kill that deer. Deer went far away, disappearing time and again, but at last, Rama followed and killed it. Now the deer transformed as a demon (in his original form) and cried loudly the names of Sita and Lakshmana in the voice of Rama. Sita heard that voice and told Lakshmana to go for the help of Rama. Lakshmana tried to avoid as he knew that it was an illusion but due to bitter words of Sita, he had to go. The story is symbolic and related to the Delusion of mind( an attachment to mine – Moha) symbolized as demon Maareecha. This delusion is a strong vice and originates from illusion. When a person thinks himself a body and lives in this thought for a very - very long time, hen this illusory thought converts into a belief and gives rise to many – many vices such as desire, anger, greed, delusion, pride, enmity, jealousy and attachment etc. These vices lie in sub-consious mind, come in conscious mind and then harm a person’s thinking heavily. Ramayana points out that only a person of Self Knowledge symbolized as Rama is capable of destroying all these vices. The story describes here that the strong vice like delusion grabs a person’s mind again and again who is body – conscious but is is afraid of a soul – conscious person. The story says that although Delusion overpowers one’s purity symbolized as Sita and influences one’s thinking symbolized as Lakshmana, but is destroyed by Self – knowledge symbolized as the killing of demon Maareecha by Rama. The story also tells that this delusion is nothing in itself but it controls a person in such an attractive manner that a person never realizes as to when and how he was trapped. This is symbolized as the trapping of Sita by Mareecha in the form of a golden deer. The symbol of Golden deer for delusion is very purposeful. Delusion is very attractive like the gold and also, worth investigatiion. A person knows that he leaves everything even his own body but still he is not aware and entangles in me and mine.
मारीच का वैदिक दृष्टिकोण - विपिन कुमार ऋग्वेद 1.99, 8.29, 9.64,9.67.4-6, 9.91, 9.92, 9.113, 9.114, 10.137.2 सूक्तों का ऋषि कश्यपः मारीचः अर्थात् मरीचि का पुत्र कश्यप है। इन सूक्तों के आधार पर मारीच कश्यप की प्रकृति का अन्वेषण किया जाना अपेक्षित है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि समाधि की ओर प्रस्थान अथवा समाधि में स्थित होना तथा वहां स्थित होकर जगत का अवलोकन करने वाला पश्यक कहलाता है तथा समाधि से व्युत्थान की स्थिति कश्यप कहलाती है। वायु पुराण 65.109(2.4.109) में कहा गया है कि जो कश्य या मद्य का पान कर ले, वह कश्यप है। साथ ही साथ यह भी उल्लेख है कि वाक् और मन कश्य कहलाते हैं। इस संसार में हमारी चेतना की अभिव्यक्ति जिस प्रकार से भी हो रही है – नाम से, रूप से, क्रिया से आदि, वह सब वाक् के अन्तर्गत आते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो अपने वाक् और मन को अन्तर्मुखी करना (या पान करना) सीख जाए, वह कश्यप है। एक बार अपने वाक् और मन का पान करना आ जाए, फिर एक नए प्रकार से वाक् और मन को बहिर्मुखी किया जा सकता है जिसे श्रेष्ठ सृष्टि कहा जाता है। कश्यप शब्द के तात्पर्य का निर्धारण होने के पश्चात् यह जानना अपेक्षित है कि कश्यप को मरीचि – पुत्र कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है। सामान्य भाषा में मरीचि सूर्य की किरण को कहा जाता है, लेकिन वैदिक भाषा में मरीचि और किरण या रश्मि शब्दों में अंतर है। ऐसा प्रतीत होता है कि मरीचि शब्द का प्रयोग केवल अन्तरिक्ष में स्थित सूर्य की किरणों के लिए होता है( अन्तरिक्ष को वायु का, प्राणों के समष्टि रूप का स्थान समझा जाता है। वायु को धूम्र जैसा कहा गया है जबकि मरीचियों को विष्फुलिंग जैसा। धूम स्थिति से मरीचियों का जन्म नहीं हो सकता, अर्चि से हो सकता है)। हमारी इन्द्रियों को भी मरीचियां कहा जा सकता है। मृग मरीचिका के लिए तो इन्द्रियां ही उत्तरदायी हैं। उणादि कोष 4.70 तथा भोजकृत – उणादिसूत्र 2.1.177 में मरीचि शब्द की निरुक्ति मृ धातु में ईचि प्रत्यय लगाकर की गई है, वैसे ही जैसे दधीचि शब्द की। दधीचि की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी अस्थियों में देवताओं के अस्त्रों के सारे तेज को सुरक्षित कर लिया था जिसके कारण उनकी अस्थियों से वज्र का निर्माण संभव हो सका। इसी तथ्य को मरीचि पर भी लागू करके सोचा जा सकता है कि जो साधक अपनी दीप्ति को नष्ट न होने दे, वह मरीचि हो सकता है। पुराणों में मारीच कश्यप को मरीचि व कला का पुत्र कहा गया है। कला को समझने के लिए कला शब्द पर टिप्पणी पठनीय है। इस टिप्पणी में कहा गया है कि प्रकृति में कला से पहली स्थिति कलह की है। आधुनिक विज्ञान के आधार पर हम जानते हैं कि प्रकाश की या ध्वनि की दो तरगें जब परस्पर मिलती हैं तो वह एक दूसरे को नष्ट कर सकती हैं या एक दूसरे से सहयोग कर द्विगुणित हो सकती हैं। यह तरंग – तरंग की आपेक्षिक कला पर निर्भर करता है। यदि यह एक दूसरे को नष्ट कर देती हैं तो यह कलह होगी। यदि यह सहयोग करती हैं तो यह कला कहलाएगी। वायु पुराण 2.4.116 (65.116) में कहा गया है कि मारीच कश्यप पुत्र की कामना से सलिल या आपः (प्राणों का अविकसित रूप) में स्थित होकर तप करता है और सभी आपः को अपनी पत्नी बना लेता है। दक्ष प्रजापति मारीच कश्यप को अपनी बहुत सी(13) कन्याएं प्रदान करता है जिससे इस जगत की सृष्टि होती है। मारीच कश्यप अदिति व दिति, दोनों का पति है। मारीच कश्यप को श्रेष्ठ पुत्र के रूप में अरिष्टनेमि कश्यप की प्राप्ति होती है। अरिष्टनेमि का अर्थ है – जिसके परितः एक सीमा विशेष में कोई भी हिंसा, रिष्ट घटित नहीं हो सकता। जब किसी साधक में इन गुणों का अभाव हो तो उसे रामायण का मारीच राक्षस समझा जा सकता है। सामान्य स्थिति तो वह है जिसकी विश्वामित्र ने दशरथ से शिकायत की है कि मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस हैं जो वेदि में रक्त और मांस की वर्षा करते हैं। हम कहीं जाते हैं और अन्य व्यक्ति हमारे ऊपर आक्षेप करते हैं। इसका अर्थ है कि हमारी अभिव्यक्ति अरिष्ट वाली नहीं है, अपितु रक्त और मांस की वर्षा करने वाली है। ऋग्वेद 10.137.2 ऋचा का ऋषि कश्यपः मारीचः है। इस ऋचा (द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः । दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः ॥) में कहा गया है कि वात दो प्रकार की हैं – एक वह जो दक्षता लाती है और दूसरी वह जो पाप को नष्ट करती है। पुराणों में दक्ष और मारीच कश्यप का सम्बन्ध तो प्रत्यक्ष है, लेकिन पापों के नाश का उल्लेख अप्रत्यक्ष है। मारीच कश्यप द्वारा सलिल में स्थित होकर तप करना पाप को नष्ट करने का अप्रत्यक्ष उल्लेख हो सकता है।
छान्दोग्य उपनिषद 3.1.1 में आदित्य की कल्पना एक देवमधु के रूप में की गई है। इस मधु को धारण करने वाला मधु का अपूप(छत्ता) अन्तरिक्ष है। इस अन्तरिक्ष रूपी अपूप से जो किरणें निकलती हैं, उन्हें मरीचियां कहा गया है। अन्यथा आदित्य की रश्मियों का वर्गीकरण विभिन्न दिशाओं में किया गया है और उन्हें मधुनाडियां संज्ञा दी गई है जिनका चयन करके उन्हें चार वेदों का, विभिन्न कामनाओं को प्राप्त कराने वाले मन्त्रों का रूप दिया जा सकता है। अन्तरिक्ष एक प्रकार से मरीचियों का भंडारण ग्रह है। अन्तरिक्ष का अर्थ है – अन्तः – ईक्षण, बाहर से दृष्टि हटाकर अन्दर की ओर झांकना। यह कहा जा सकता है कि पुराणों में जो मारीच कश्यप की कल्पना की गई है, वह शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त कथन के अनुरूप ही है। यह कहा जा सकता है कि आदित्य मनुष्य की चेतना की सर्वाधिक विकसित स्थिति है। चेतना के पहले विकास को अग्नि नाम दिया जाता है। दूसरे विकास को वायु और तीसरे विकास को आदित्य या सूर्य। अग्नि का स्थान पृथिवी पर है, वायु का अन्तरिक्ष में और आदित्य का द्युलोक में। छान्दोग्य उपनिषद आदित्य के देवमधु होने की बात करता है। लेकिन साधारण स्थिति में यह आशा नहीं की जा सकती कि आदित्य मधु बन जाएगा और उसकी किरणें भी मधु का रूप होंगी। सामान्य स्थिति में तो मरीचियों का रूप वह होगा जिसकी विश्वामित्र ने दशरथ से शिकायत की है कि मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस हैं जो वेदि में रक्त और मांस की वर्षा करते हैं। अतः रामायण का मारीच सूर्य मधु के बदले रक्त और मांस की वर्षा कर रहा है। शतपथ ब्राह्मण 9.4.1.8 का कथन है कि सूर्य गन्धर्व है और मरीचियां अप्सराएं हैं। इन दोनों के मिथुन से आयु की प्राप्ति होती है। यदि इस संसार में हमारी अभिव्यक्ति ऐसी है कि एक बार जो विचार बाहर निकल गया, उसको अन्तर्मुखी करने का कोई उपाय नहीं है, तब मिथुन संभव नहीं है। राक्षस कुल के मारीच के विषय में हमें पहला ज्ञान छान्दोग्य उपनिषद के इस कथन से प्राप्त होता है कि सामवेद के अनुसार द्युलोक (जिसमें नक्षत्र, चन्द्रमा आदि विद्यमान हों) सामगान का प्रस्ताव है, द्युलोक में आदित्य का विद्यमान होना उद्गीथ है, मरीचियां प्रतिहार हैं और पितर निधन हैं(त्रयी विद्या हिङ्कारः । त्रय इमे लोकाः स प्रस्तावः । अग्निर्वायुरादित्यः स उद्गीथः । नक्षत्राणि वयांसि मरीचयः स प्रतिहारः । सर्पा गन्धर्वाः पितरस्तन्निधनम् । एतत्साम सर्वस्मिन् प्रोतम् ॥ छां.उ. २,२१.१ ॥)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मरीचियों का सम्बन्ध किसी प्रकार से पितरों से है(पुराणों के अनुसार मरीचि ऋषि की पत्नी शापवश गया में धर्मशिला बन जाती है जिस पर सारे देवता विराजमान होते हैं और मरीचि ऋषि भी उस पर स्थित होकर तप करते हैं और कृष्ण से शुक्ल बनते हैं)। मरीचियों को सामगान का प्रतिहार कहा गया है। प्रतिहार का अर्थ प्रतिहरण लिया जा सकता है, अर्थात् मर्त्य स्तर के लिए, अचेतन मन के लिए साम विशेष का लाभ किस प्रकार उठाया जा सकता है। पितरों को निधन कहा गया है। डा. फतहसिंह के अनुसार पितर हमारा पालन करने वाली शक्तियां, हमारा अचेतन मन, हमारे संस्कार हैं। आदित्य से बहुत प्रकार की रश्मियों का उदय होगा। शतपथ ब्राह्मण 5.3.4.23 के अनुसार राजसूय में जिन जलों से अथवा आपः रूप प्राणों से राजा का अभिषेक किया जाता है, उनमें 16 आपः तो इस प्रकार के हैं जिनके साथ आहुति दी जाती है। सारस्वत व मरीचि प्रकार के जल ऐसे हैं जिनके साथ आहुति नहीं दी जाती। क्यों नहीं दी जाती, इसके उत्तर में कहा गया है कि मरीचि प्रकार के आपः अनद्धा(अयोग्य) हैं। लोक में मरीचि का अर्थ सूर्य की रश्मि या किरण लिया जाता है। लेकिन वैदिक साहित्य में मरीचि व रश्मि में अंतर है। शतपथ ब्राह्मण 4.1.1.25 का कथन है कि जो सूर्य की रश्मियां हैं, वह मरीचिपा देवाः अर्थात् मरीचियों का पान करने वाले (अथवा मरीचियों की रक्षा करने वाले) देव हैं। पैप्पलाद संहिता 20.60.10 में शरीर के दाह का कथन है। इस कथन से प्रतीत होता है कि चाहे तो मृत्यु के पश्चात् शरीर को जलाने का संदर्भ हो, अथवा जीते जी ही अपने शरीर को जलाने का संदर्भ हो, साधना में अपने शरीर को जलाकर सुप्त चेतना से, अवचेतन से चेतन को प्राप्त करना है। वैदिक साहित्य में इसे चरम या चर्म नाम दिया गया है। यही कारण है कि सीता स्वर्णमृग को प्राप्त करने के लिए लालायित है और राम से कहती है कि यदि स्वर्णमृग जीवित उपलब्ध न हो सके तो उसका चर्म ही लेते आना। यहां स्वर्णमृग से तात्पर्य अचेतन मन के चेतन भाग से है, जिसका रूप स्वर्णिम हो गया है, जिसका अचेतन भाग समाप्त हो गया है। मृग उस पशु का नाम है जो अरण्य में वास करता है। वर्तमान संदर्भ में, मृग का अर्थ अचेतन मन लेना उपयुक्त होगा। ऋग्वेद 10.58.6 में उल्लेख है कि मरीची के दूर जाने के साथ जो मन दूर चला गया है, उसको मैं पुनः लौटा कर लाता हूं। इससे संकेत मिलता है कि मन का बहुत सा भाग मरीचियों में उलझा पडा है जिसको पुनः प्राप्त करना है। तभी स्वर्णमृग के निर्माण की संभावना बन सकेगी। पुराणों में मारीच के पिता के रूप में सुन्द असुर तथा माता के रूप में ताटका, ताडका का नाम आता है। सुन्द को वैदिक साहित्य के शुन्ध्यु के रूप में समझा जा सकता है। शुन्ध्यु का अर्थ होगा वह साधक जो अपना शोधन करने चला है। उसका पुत्र मारीच सूर्य है। राम उस पर मानवास्त्र का प्रयोग करके उसे सौ योजन दूर लंका के निकट समुद्र में फेंक देते हैं। लंका लक की, भाग्य की, अचेतन मन की स्थिति है। मानवास्त्र का अर्थ होगा चेतन मन। ताटका शब्द हठयोग के त्राटक की ओर संकेत करता है। ताटंक एक कर्णाभूषण का नाम है। ताटंक को सूरदास के निम्नलिखित पद के आधार पर समझा जा सकता है - खंजन नैन रूप रस माते। अतिशय चारु चपल चंचल ये पल पिंजरा न समाते।1। चली चली जात निकट स्रवननि के उलटि ताटंक फँदाते।2। सूरदास अंजन गुण अटके नातरु कबै उडि जाते।।3।। उपरोक्त पद में कहा जा रहा है कि खंजन नयनों के रूप रस का पान कर रहे हैं। यह खंजन अत्यन्त चपल चंचल हैं और पलक रूपी पिंजरे में समा नहीं रहे हैं। यह बार बार श्रवणों के निकट जाते हैं लेकिन वहां ताटंक का फंदा लगा हुआ है जिसके कारण उसे वहां से लौटना पडता है। सूरदास कहते हैं कि अंजन गुण से अटके हुए हैं नहीं तो पता नहीं यह पक्षी कब के उड जाते। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि बाह्य रूप में तो नयन और श्रवण अलग – अलग दिखाई पडते हैं, लेकिन ज्योति के दृष्टिकोण से नयन और श्रवण दोनों परस्पर मिले हुए हैं। अतः ताटंक फंदा कैसा है, त्राटक के ज्ञान के अभाव में यह अज्ञात ही है। प्रथम लेखन – 13-9-2014ई. ( आश्विन् कृष्ण पंचमी, विक्रम संवत् 2071) संदर्भ *यत्ते मरीचीः प्रवतो मनो जगाम दूरकम् । तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥ - ऋ. 10.58.6 *पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः । समुद्रे अन्तः कवयो वि चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः ॥ - ऋ. 10.177.1 *उत् तिष्ठारे पलायस्व मरीचीनां पदं भव। अथो उद् अकार्यं कुर्व् आसां सम् अर्षि मुष्कयोः।। - पै.सं. 5.34.6 *कश्यपश् च सुपर्णश् च यन् मरीच्याम् अभिष्ठताम्। सुपर्णः पर्य् अवापश्यत् समुद्रे भूमिम् आवृताम्।। - पै.सं. 6.7.1 *गन्धर्वस् ते मूलम् आसीच् छाखाप्सरसस् तव। मरीचीर् आसन् पर्णानि सिनीवाली कुलं तव।। - पै.सं. 9.11.7 *स एको भूतिं चरति प्रजानन्। मरीचिर् आसीत् सा मनसस् सम् अभवत्। सा प्रार्धीत सा गर्भम् आ धत्त। स गर्भो वर्धतु स वृद्धो ब्रवीज् जायैति। तस्यै प्रजापतिर् जुहोति स्वाधिष्ठानाद् एति स्वाधिचरणाच् चैति।। - पै.सं. 13.14.16 *ये अभ्रजा ये वातजा ये दिवस् परि जज्ञिरे। मरीच्याः पुत्राणां वयम् अपि नह्याम्य् असुम्।। - पै.सं. 19.20.9 *मरीचीर् धूमं प्र विशानु वाच उदारान् गच्छोत वा निहारान्। नदीनां फेनम् अव तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृष्ठाः।। - पै.सं. 19.33.12 *मृगान् मरीचीर् अप्य् एतु ते मन उ(त्) त्वा हर्मि पतनम्। गृहेभ्यस् सतस् पृक्षता निषदनानि साधवः।। - पै.सं. 19.35.12 *चर्माद् यः कूरमाणो हि हरिणस्य भयं कृधि। मृगाँ अनु प्र पातय मरीचीर् अनु नाशय।। - पै.सं. 19.36.17 *उस्वोदनी समिद्वती दुर्गा योनिर् अविदला। मृगाँ अनु प्र पातय मरीचीर् अनु नाशय।। पै.सं. 20.52.10 *अग्निष् ट्वा तपतु सूर्यस् त्वा तपतु वातस् त्वा युङ्क्तां मरुतश् च युञ्जताम्। अर्वाङ् एह सम् अश्नुव आ नो मरीचिभिः।।10।। *गृहाणि ते लोमान्य् अङ्गेभ्यस् त्वचम् इमास् सन्त्व् अराय्यो अस्यास् ते। इह ते रमतां मनो मयि ते रमतां मनः।।11।। - पै.सं. 20.60.10-11 *- - -अपो यूष्णा, मरीचीर्विप्रुषा, नीहारमूष्मणा - - - मै.सं. 3.15.8 *अथ हुत्वोर्ध्वं ग्रहमुन्मार्ष्टि । पराञ्चमेवास्मिन्नेतत्प्राणं दधात्यथोत्तानेन पाणिना मध्यमे परिधौ प्रागुपमार्ष्टि पराञ्चमेवास्मिन्नेतत्प्राणं दधाति देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्य इति - मा.श. ४.१.१.[२४] *अमुष्मिन्वा एतं मण्डलेऽहौषीत् । य एष तपति तस्य ये रश्मयस्ते देवा मरीचिपास्तानेवैतत्प्रीणाति त एनं देवाः प्रीताः स्वर्गं लोकमभिवहन्ति - मा.श. ४.१.१.[२५] *अथ नीचा पाणिना । मध्यमे परिधौ प्रत्यगुपमार्ष्टीदं वा उपांशु हुत्वोत्तानेन पाणिना मध्यमे परिधौ प्रागुपमार्ष्ट्यथात्र नीचा पाणिना मध्यमे परिधौ प्रत्यगुपमार्ष्टि प्रत्यञ्चमेवास्मिन्नेतदुदानं दधाति देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्य इति सोऽसावेव बन्धुः - मा.श. ४.१.२.[२३] *अथ मरीचीः । अञ्जलिना संगृह्यापिसृजत्यापः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तेत्येता वा आपः स्वराजो यन्मरीचयस्ता यत्स्यन्दन्त इवान्योऽन्यस्या एवैतच्छ्रिया अतिष्ठमाना उत्तराधरा इव भवन्त्यो यन्ति स्वाराज्यमेवास्मिन्नेतद्दधात्येता वा एका आपस्ता एवैतत्सम्भरति - मा.श. ५.३.४.[२१] *षोडश ता आपो या अभिजुहोति । षोडशाहुतीर्जुहोति ता द्वात्रिंशद्द्वयीषु न जुहोति सारस्वतीषु च मरीचिषु च ताश्चतुस्त्रिंशत्त्रयस्त्रिंशद्वै देवाः प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशस्तदेनं प्रजापतिं करोति - मा.श. ५.३.४.[२३] *अथ यन्मरीचिषु न जुहोति । नेदनद्धेवैतामाहुतिं जुहवानीति तस्मान्मरीचिषु न जुहोति - मा.श. ५.३.४.[२६] *स यो गर्भोऽन्तरासीत् । स वायुरसृज्यताथ यदश्रु संक्षरितमासीत्तानि वयांस्यभवन्नथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्ता मरीचयोऽभवन्नथ यत्कपालमासीत्तदन्तरिक्षमभवत् - मा.श. ६.१.२.[२] *संहित इति । असौ वा आदित्यः संहित एष ह्यहोरात्रे संदधाति विश्वसामेत्येष ह्येव सर्वं साम सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽप्सरस इति सूर्यो ह गन्धर्वो मरीचिभिरप्सरोभिर्मिथुनेन सहोच्चक्रामायुवो नामेत्यायुवाना इव हि मरीचयः प्लवन्ते स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पात्विति तस्योक्तो बन्धुः - मा.श. ९.४.१.[८]
*अन्तरिक्षं ह त्वेवैषोऽग्निश्चितः तस्य द्यावापृथिव्योरेव संधिः परिश्रितः परेण हान्तरिक्षं द्यावापृथिवी संधत्तस्ताः परिश्रितो वयांसि यजुष्मत्य इष्टका वर्षं सूददोहा मरीचयः पुरीषमाहुतयः समिधो वायुर्लोकम्पृणा तद्वा एतत्सर्वं वायुमेवाभिसम्पद्यते तत्सर्वोऽग्निर्लो - - - मा.श. १०.५.४.[२] *ते वा एते आहुती हुते उत्क्रामतः ते अन्तरिक्षमाविशतस्ते अन्तरिक्षमेवाहवनीयं कुर्वाते वायुं समिधं मरीचीरेव शुक्रामाहुतिं ते अन्तरिक्षं तर्पयतस्ते तत उत्क्रामतः - मा.श. ११.६.२.[६] *स ह प्रजापतिरीक्षां चक्रे कथं न्विमे लोका ध्रुवाः प्रतिष्ठिताः स्युरिति स एभिश्चैव पर्वतैर्नदीभिश्चेमामदृंहद्वयोभिश्च मरीचिभिश्चान्तरिक्षं जीमूतैश्च नक्षत्रैश्च दिवम्- मा.श. ११.८.१.[२] *तद् असद् एव सन् मनो ऽकुरुत स्याम् इति । तद् अतप्यत । तस्मात् तेपानाद् धूमो ऽजायत । तद् भूयो ऽतप्यत । तस्मात् तेपानाद् अग्निर् अजायत । तद् भूयो ऽतप्यत । - तै.ब्रा. 2.2.9.1
*तस्मात् तेपानाज् ज्योतिर् अजायत । तद् भूयो ऽतप्यत । तस्मात् तेपानाद् अर्चिर् अजायत । तद् भूयो ऽतप्यत । तस्मात् तेपानान् मरीचयो ऽजायन्त । तद् भूयो ऽतप्यत । तस्मात् तेपानाद् उदारा अजायन्त । तद् भूयो ऽतप्यत । तद् अभ्रम् इव समहन्यत । - तै.ब्रा. 2.2.9.2 *पृथिवी न्यवर्तयत । स_ओषधीभिर् वनस्पतिभिर् अपुष्यत् । वायुर् न्यवर्तयत । स मरीचीभिर् अपुष्यत् । अन्तरिक्षं न्यवर्तयत । तद् वयोभिर् अपुष्यत् । आदित्यो न्यवर्तयत । स रश्मिभिर् अपुष्यत् । - तै.ब्रा. 2.3.3.2 *प्रस्तुतं विष्टुतम्̐ सम्̐स्तुतं कल्याणं विश्वरूपम् । शुक्रम् अमृतं तेजस्वि तेजः समिद्धम् । अरुणं भानुमन् मरीचिमद् अभितपत् तपस्वत् । - तै.ब्रा. 3.10.1.2} *पृथिव्य् एवाग्निर् वैश्वानरः। तस्यान्तरिक्षं समिद् अग्निर् ज्योतिर् वायुर् धूमो मरीचयो विष्फुलिङ्गा दिशो ऽङागाराः. तस्मिन्न् एतस्मिन्न् अग्नौ वैश्वानरे ऽहरहर् देवा वृष्टिं जुह्वति। तस्या आहुतेर् हुताया अन्नं संभवति॥ - जै.ब्रा. 1.45 *पूर्धि चक्षुरिति चक्षुषी मरीमृज्येत। - ऐ.ब्रा. 3.19 *स्वाहा त्वा सुभवः सूर्यायेति दक्षिणतः प्राञ्चमृजुं संततं दीर्घं हुत्वा देवेभ्य-स्त्वा मरीचिपेभ्य इति मध्यमे परिधौ लेपं निमार्ष्टि १ – आप.श्रौ.सू. *यथा गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः सर्वा एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति । ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्ति । एवं ह वै तत्सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति । तेन तर्ह्येष पुरुषो न शृणोति । न पश्यति । न जिघ्रति । न रसयते । न स्पृशते । नाभिवदते । नादत्ते । नानन्दयते । न विसृजते । नेयायते । स्वपतीत्याचक्षते -प्रश्न.उ. ४.२ ॥ *त्रयी विद्या हिङ्कारः । त्रय इमे लोकाः स प्रस्तावः । अग्निर्वायुरादित्यः स उद्गीथः । नक्षत्राणि वयांसि मरीचयः स प्रतिहारः । सर्पा गन्धर्वाः पितरस्तन्निधनम् । एतत्साम सर्वस्मिन् प्रोतम् ॥ छां.उ. २,२१.१ ॥ असौ वा आदित्यो देवमधु । तस्य द्यौरेव तिरश्चीनवंशः । अन्तरिक्षमपूपः । मरीचयः पुत्राः ॥ छां.उ. ३,१.१ ॥ तस्य ये प्राञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः । ऋच एव मधुकृतः । ऋग्वेद एव पुष्पम् । ता अमृता आपः । ता वा एता ऋचः ॥ ३,१.२ ॥ एतमृग्वेदमभ्यतपन् । तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यं रसोऽजायत ॥ ३,१.३ ॥ तद्व्यक्षरत् । तदादित्यमभितोऽश्रयत् । तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य रोहितं रूपम् ॥ ३,१.४ ॥ अथ येऽस्य दक्षिणा रश्मयस्ता एवास्य दक्षिणा मधुनाड्यः । यजूंष्येव मधुकृतः । यजुर्वेद एव पुष्पम् । ता अमृता आपः ॥ ३,२.१ ॥ तानि वा एतानि यजूंष्येतं यजुर्वेदमभ्यतपन् । तस्य अभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यं रसोऽजायत ॥ ३,२.२ ॥ तद्व्यक्षरत् । तदादित्यमभितोऽश्रयत् । तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य शुक्लं रूपम् ॥ ३,२.३ ॥ अथ येऽस्य प्रत्यञ्चो रश्मयस्ता एवास्य प्रतीच्यो मधुनाड्यः । सामान्येव मधुकृतः । सामवेद एव पुष्पम् । ता अमृता आपः ॥ ३,३.१ ॥ तानि वा एतानि सामान्येतं सामवेदमभ्यतपन् । तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यं रसोऽजायत ॥ ३,३.२ ॥ तद्व्यक्षरत् । तदादित्यमभितोऽश्रयत् । तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य कृष्णं रूपम् ॥ ३,३.३ ॥ अथ येऽस्योदञ्चो रश्मयस्ता एवास्योदीच्यो मधुनाड्यः । अथर्वाङ्गिरस एव मधुकृतः । इतिहासपुराणं पुष्पम् । ता अमृता आपः ॥ ३,४.१ ॥ ते वा एतेऽथर्वाङ्गिरस एतदितिहासपुराणमभ्यतपन् । तस्याभितप्तस्य यशस्तेज इन्द्रियं वीर्यमन्नाद्यं रसोऽजायत ॥ ३,४.२ ॥ तद्व्यक्षरत् । तदादित्यमभितोऽश्रयत् । तद्वा एतद्यदेतदादित्यस्य परःकृष्णं रूपम् ॥ ३,४.३ ॥ अथ येऽस्योर्ध्वा रश्मयस्ता एवास्योर्ध्वा मधुनाड्यः । गुह्या एवादेशा मधुकृतः । *ब्रह्मैव पुष्पम् । ता अमृता आपः ॥छां.उ. ३,५.१ ॥ मरीचिर्मरुतामस्मि – भगवद्गीता 10.21 *अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठाऽन्तरिक्षं मरीचयः। पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः। - ऐ.उ. 1.1 *आग्नेय्यां दिश्यग्निः सपरिवारो देवता प्रत्यधिदेवता। तद्दिक्षु मारीचको नाम राक्षसः(प्राच्यां त्रिशूलको नाम राक्षसः, याम्यां एकपिङ्गलकः, नैर्ऋत्यां सत्यकः, वारुण्यां यत्खलः, वायव्यां प्रलम्बकः, कौबेर्यां अश्वालकः, ईशान्यां उन्मत्तकः) ।– वनदुर्गोपनिषद 444 *- - -मरीचीरुप संनुद –वनदुर्गोपनिषद 464 *विन्ध्यस्योत्तरे तीरे मारीचो नाम राक्षसः। तत्र मूत्रपुरीषाभ्यां हुताशनं शमय शमय स्वाहा। - वनदुर्गोपनिषद 465 *घटत्वेन यथा पृथ्वी जलत्वेन मरीचिका। गृहत्वेन हि काष्ठानि खड्गत्वेनैव लोहता। तद्वदात्मनि देहत्वं पश्यत्यज्ञानयोगतः। - योगशिखोपनिषद 4.23 *वासुदेवात्सङ्कर्षणो नाम जात आसीत्। - - -ततः प्रद्युम्नसंज्ञं मन आसीत्। तस्मादहंकारनामाऽनिरुद्धः। ततो हिरण्यगर्भोऽजायत। तस्माद्दश प्रजापतयो मरीच्यादयः -- - - -सङ्कर्षणोपनिषद 4 *किमात्मकानि वा एतानीन्द्रियाणि प्रचरन्त्युद्गन्ता चैतेषामिह को नियन्ता वेत्याह प्रत्याहात्मात्मकानीत्यात्मा ह्येषामुद्गन्ता नियन्ता वाऽप्सरसो भानवीयाश्च मरीचयो नामाथ पञचमी रश्मिभिर्विषयानत्ति – मैत्रायण्युपनिषद 6.31 *मरिचाढेन कुर्वीत मारीचं नाम पर्वतम्। दद्याज्जीरकं पूर्वमाग्नेयं हिङ्गमुत्तमम्।। - - -- -- शिवोपनिषद 6.73 *आपो मरीचीः प्रवहन्तु नो धियो धाता समुद्रो वहन्तु पापम्। भूतं भविष्यदभयं विश्वमस्तु मे ब्रह्मा ऽधिगुप्तः स्वाराक्षराणि स्वाहा। - आश्व.गृह्य.सू. 2.4.14 *आपो मरीचीः परिपान्तु सर्वतो धाता समुद्रो अपहन्तु पापम्। भूतं भविष्यदकृन्तद्विश्वमस्तु मे ब्रह्माभिगुप्तः सुरक्षितः स्यां स्वाहा॥ - पार.गृह्य सू. 3.3.8 *आपः स्वराज इति मरीचिर्गृहीत्वा गृहीत्वा ऽञ्जलिना सर्वासु संसृजति। औदुम्बरे पात्रे समासिञ्चत्येना मधुमतीरिति। - कात्या.श्रौ.सू. 15.4.36 *द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः । दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः ॥(ऋ. कश्यपो मारीचः) - ऋ. 10.137.2
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