PURAANIC SUBJECT INDEX (From Mahaan to Mlechchha ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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यज्ञैः सम्मिश्लाः पृषतीभिरृष्टिभिर्यामञ्छुभ्रासो अञ्जिषु प्रिया उत । वैदिकवाङ्मये माधवशब्दस्य प्रत्यक्षोल्लेखं नास्ति। ऋ. २.३६.२ ऋचि ऋषिरूपेण मरुतः माधवश्च नामनी भवतः। अस्मिन् ऋचि पोताऋत्विजस्य उल्लेखः अस्ति। पोता उपरि टिप्पणी द्रष्टव्यः अस्ति। पोता ऋत्विजः लक्षणं अपचितिः भवति – ये दुर्गुणाः सन्ति, तेषां अपचयनम्। अपचिति उपरि संदर्भाः द्रष्टव्यानि। शतपथब्राह्मणे १.४.१.१० दर्शपूर्णमासे सामिधेन्यनुवचनस्य संदर्भे विदेघः माथवः राज्ञः उल्लेखमस्ति। तस्य पुरोहितः गोतमः राहूगणः तं यजुषा आह्वयति किन्तु सः न शृणोति। तं त्वा घृतस्नवीमह(ऋ.५.२६.२) इति पदं श्रुत्वा या वैश्वानरः अग्निः तस्य मुखे बद्धा आसीत्, सा विमुक्ता अभवत् एवं सदानीरानदीतः ये पूर्वप्रदेशाः आसन्, तानि संददाह। ये अग्निदग्धाः प्रदेशाः सन्ति, ते ब्राह्मणस्य चरणाय उपयुक्ताः सन्ति। ये अनग्निदग्धाः प्रदेशाः सन्ति, तेषु ब्राह्मणस्य प्रवेशः निषिद्धः अस्ति। अस्मिन् आख्याने अनुमानमस्ति यत् माथवः माधवस्य रूपमस्ति। या अग्निः माथवस्य मुखे विद्यमाना अस्ति, सा देहस्य पापानां जरणे समर्था अस्ति, किन्तु अयं अपेक्षितमस्ति यत् देहे घृतस्य विद्यमानता भवेत्। अग्न्यै घृतं प्रियं भवति। विदेघमाथवस्य उल्लेखः सामिधेनीप्रकरणे अस्ति। सामिधेनी अर्थात् अग्निचयनहेतु समितेः चयनम्। आधुनिकविज्ञानानुसारेण, यत्र यत्र सममितेः न्यूनता अस्ति, तस्य पूरणं सामिधेनी अस्ति। पुराणेषु प्रसिद्धमस्ति यत् माधवः मधोः असुरस्य वधं करोति। मधोः असुरस्य असुरत्वं किमस्ति। पद्मपुराणे १.७२ कथनमस्ति यत् मधु असुरः हरस्य रूपं धृत्वा माधवेन सह युद्धं करोति। यः अवशिष्टः भवति, तस्य संज्ञा हरः अस्ति। तस्य न कोपि उपयोगः अस्ति। किन्तु पुराणेषु संकेतमस्ति यत् हरस्य मधुनि रूपान्तरणं संभवमस्ति। वैदिकवाङ्मये केचन अन्नाद्याः सन्ति – दधि, घृतं एवं मधु। यः मधुः अस्ति, तत् आरण्यकमस्ति, घृतं ग्राम्यम्। कर्मकाण्डे मधोः किं रूपमस्ति, अन्वेषणीयम्। कर्मकाण्डे यः हरः अस्ति, तस्य व्यवस्था प्रवर्ग्यसम्पादनरूपेण अस्ति, इति प्रतीयते। अस्मिन् संदर्भे डा. दयानन्द भार्गवस्य कथनं उल्लेखनीयमस्ति – यज्ञ का अर्थ है-आदान-प्रदान। हम किसी से कुछ लें तो किसी को कुछ दें भी। जब हम लेते हैं तो हम अग्नि हैं, जब हम देते हैं तो हम सोम हैं। दोनों के मिश्रण से यज्ञ होता है। प्रश्न होता है कितना लें और कितना दें। उत्तर है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उतना लें, शेष बचा हुआ दूसरों को दें। अपनी आवश्यकता पूरी करने पर बच जाता है उसे वेद ने उच्छिष्ट कहा है। इसे यज्ञशेष भी कहा जाता है। आज की भाषा में इसे प्रसाद कहते हैं। अपने लिए जो आवश्यक है, ब्राह्मण ग्रंथ उसे ब्रह्मौदन कहते हैं, जो बच जाए उसे प्रवर्ग्य कहते हैं। एक का प्रवर्ग्य दूसरे का ब्रह्मौदन बने-यह अहिंसक जीवन शैली का मार्ग है। हम दूसरे का ब्रह्मौदन छीनें, यह हिंसक जीवन शैली है। एक उदाहरण लें। पेड़ कार्बनडाइआक्साईड लेता है, वह उसका ब्रह्मौदन है, वह जो ऑक्सीजन छोड़ता है, यह उसका प्रवर्ग्य है। पेड़ का वह प्रवर्ग्य ऑक्सीजन हमारा ब्रह्मौदन बन जाता है और हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाइआक्साईड पेड़ का ब्रह्मौदन बन जाता है। प्राकृतिक जीवन शैली का यही अहिंसक आधार है कि एक का प्रवर्ग्य दूसरा का ब्रह्मौदन बनता रहे और आदान-प्रदान रूप यज्ञ चलता रहे। किंतु सदा यह अहिंसक शैली व्यावहारिक नहीं होती। ऐसे में हमें किसी का ब्रह्मौदन ही लेना पड़े तो उसके प्रायश्चित के रूप में किसी को अपने स्वत्व का कुछ अंश दे भी देना चाहिये। अतः, यज्ञ के साथ तपस् और दान भी धर्म का अंग हैं। दान पदार्थ का त्याग है, तपस् सुख का त्याग है। ये दोनों प्रकार के त्याग यज्ञ में होने वाली न्यूनता की पूर्ति कर देते हैं। - प्रो० दयानन्द भार्गव गोपथ ब्राह्मण में वृष के दो शीर्ष कहे गए हैं - प्रवर्ग्य और ब्रह्मौदन । शीर्ष का निर्माण उदान प्राण से होता है। इसीलिए इसे ब्रह्म-ओदन/उदान कहा गया है। सारी देह को पकाकर जो फल निकलता है, शीर्ष उसका प्रतीक होता है। ऐसा अनुमान है कि ब्रह्मौदन ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग दैवी नियमों के अनुसार हो रहा है, वह नियम जिनके अनुसार ऊर्जा का क्षय नहीं होता, प्रेम। ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य, यह दोनों ही उदान प्राण के रूप कहे जा सकते हैं । उदान प्राण का अर्थ होगा वह ऊर्जा जो पृथिवी द्वारा द्युलोक में स्थापित की गई है । अथर्ववेद ११.१ तथा ११.३ सूक्त ब्रह्मौदन देवता के हैं । इन सूक्तों में प्रश्न उठाया गया है कि ब्रह्मौदन की ऊर्जा को देह के विभिन्न अंग किस देवता के माध्यम से ग्रहण करें । यदि सामान्य स्तर पर ब्रह्मौदन की ऊर्जा को ग्रहण करने का प्रयास किया जाएगा तो वह अङ्ग नष्ट हो जाएगा । अतः जिस अंग का जो देवता है, उसका आह्वान करके ही ब्रह्मौदन की ऊर्जा को ग्रहण किया जाता है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्ग्य ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग प्रकृति कर रही है और वह ऊर्जा लगातार ऋणात्मकता की ओर जा रही है, उसकी अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में लगातार वृद्धि हो रही है। उसे उच्छिष्ट भी कहा गया है। प्रवर्ग्य शीर्ष की यह विशेषता है कि वह देह से कट कर सारे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि अश्वमेध याग के दो भाग हैं – ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य। ब्रह्मौदन में प्रेम निहित है, जबकि प्रवर्ग्य में मैत्री, करुणा व उपेक्षा। अश्वमेध में अश्व का उत्सर्ग तब करना होगा जब पहले प्रेम रूपी ब्रह्मौदन की प्राप्ति कर ली गई हो। अश्व प्रवर्ग्य का प्रतीक हो सकता है। वैदिक भाषा में, प्रवर्ग्य का संभरण किया जाता है। पद्मपुराणे ७.५ माधवकुमारस्य विस्तृताख्यानमस्ति यत्र एका चन्द्रकला माधवं कुमारं पूर्णचन्द्रकलायाः प्राप्त्यै प्रेरयति। सा पूर्णचन्द्रकला समुद्रस्य पारे निवसति एवं तस्याः नामधेयं सुलोचना अस्ति। माधवः दिव्याश्वं आरोहयित्वा सुलोचनायाः निवासे गच्छति। अतः परं आख्याने स्त्रियाः पुरुषरूपे एवं पुरुषस्य स्त्रीरूपे रूपान्तरणं भवति। अयं पुरुषस्य प्रकृतिरूपे एवं प्रकृत्याः पुरुषरूपे रूपान्तरौ प्रतीयन्तः। अत्र प्रकृतिपुरुषयोः भेदं गौणं भवति। किं हरस्य शोधने अयं संभवमस्ति, अन्वेषणीयः।
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