PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Mahaan  to Mlechchha )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar


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Mahaan - Mahaabhuuta  ( words like Mahaan / great, Mahaapadma, Mahaapaarshva, Mahaabhuuta etc. )

Mahaabhoja - Mahaalaya ( Mahaamaayaa, Mahaalakshmi , Mahaalaya etc.)

Mahaalinga - Mahishaasura ( Mahisha / buffalo,  Mahishaasura etc.)

Mahishee - Mahotkata (  Mahee / earth, Mahendra, Maheshwara, Mahotkata etc. )

 Mahotpaata - Maandavya ( Mahodaya, Mahodara, Maansa / flesh, Maagadha, Maagha, Maandavya etc.)

Maandooki - Maatrikaa(  Maatangi, Maatali, Maataa / mother, Maatrikaa etc.)

Maatraa - Maadhavi (  Maadri, Maadhava, Maadhavi etc.)

Maadhyandina - Maandhaataa ( Maana / respect, Maanasa, Maanasarovara, Maandhaataa etc.)

Maamu - Maareecha (Maayaa / illusion, Maayaapuri, Maarishaa, Maareecha etc.)

Maareesha - Maargasheersha (  Maaruta, Maarkandeya, Maargasheersha etc.)

Maarjana - Maalaa  (Maarjaara / cat, Maartanda / sun, Maalati, Maalava, Maalaa / garland etc. )

Maalaavatee - Maasa ( Maalaavati, Maalini, Maali, Malyavaan, Maasha, Maasa / month etc.)

Maahikaa - Mitrasharmaa ( Maahishmati, Mitra / friend, Mitravindaa etc.)

Mitrasaha - Meeraa ( Mitrasaha, Mitraavaruna, Mithi, Mithilaa, Meena / fish etc.)

Mukuta - Mukha (Mukuta / hat, Mukunda, Mukta / free, Muktaa, Mukti / freedom, Mukha / mouth etc. )

Mukhaara - Mudgala (Mukhya / main, Muchukunda, Munja, Munjakesha, Munda, Mudgala etc.)

Mudraa - Muhuurta (Mudraa / configuration, Muni, Mura, Mushti, Muhuurta / moment etc.)

Muuka - Moolasharmaa (  Muuka,  Muurti / moorti / idol, Muula / moola etc.)

Muuli- Mrigayaa (Mooshaka / Muushaka / rat, Muushala / Mooshala / pestle, Mrikandu, Mriga / deer etc.)

Mriga - Mrityu ( Mrigavyaadha, Mrigaanka, Mrityu / death etc.)

Mrityunjaya - Meghavaahana ( Mekhalaa, Megha / cloud, Meghanaada etc.)

Meghaswaati - Menaa  (Medhaa / intellect, Medhaatithi, Medhaavi, Menakaa, Menaa etc.)

Meru - Maitreyi  ( Meru, Mesha, Maitreya etc.)

Maithila - Mohana ( Mainaaka, Mainda, Moksha, Moda, Moha, Mohana etc.)

Mohammada - Mlechchha ( Mohini, Mauna / silence, Maurya, Mlechchha etc.)

 

 

 

इन्द्रजित् के नागमय बाणों से राम – लक्ष्मण के बन्धन एवं मुक्ति के माध्यम से क्रोध की प्रबलता एवं ज्ञान के महत्त्व का चित्रण

-    राधा गुप्ता

युद्धकाण्ड में अध्याय 44, 45 तथा 50 के अन्तर्गत इन्द्रजित् द्वारा राम – लक्ष्मण के बन्धन एवं मुक्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। कथा का  संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है –

कथा का संक्षिप्त स्वरूप

प्रकट रूप से युद्ध करते हुए रावण का पुत्र इन्द्रजित् जब राम और लक्ष्मण का सामना करने में समर्थ न होसका, तब उसने अन्तर्धान विद्या का आश्रय लेकर स्वयं को अदृश्य कर लिया और राम – लक्ष्मण को मोह में डालते हुए उन्हें नागमय बाणों द्वारा बाँध दिया। नागमय बाणों से राम – लक्ष्मण के मूर्च्छित हो जाने पर जब समस्त वानर व्याकुल हो गए, तब विभीषण ने उन्हें सान्त्वना प्रदान की और राम – लक्ष्मण के सचेत हो जाने के प्रति उन्हें आश्वस्त भी किया। सुषेण नामक वानर ने देवासुर संग्राम का स्मरण करते हुए उन दिव्य ओषधियों को लाने का परामर्श दिया जिनके द्वारा पीडित और अचेत हुए देवों की चिकित्सा की जाती थी। परन्तु इसी वार्ता के बीच अकस्मात् विनतानन्दन गरुड वहाँ उपस्थित हुए और उनके आते ही राम – लक्ष्मण को बांधने वाले नागमय बाण तुरन्त भाग गए। सचेत होकर उठे हुए राम ने गरुड को हृदय से लगाया और गरुड ने भी कहा कि वे उनके मित्र हैं तथा देवों के मुख से उनके नागमय बाणों द्वारा बंधने का समाचार सुनकर शीघ्रतापूर्वक यहाँ आए हैं। गरुड ने पुनः कहा कि ये समस्त नागमय बाण कद्रू के पुत्र थे और उनके (गरुड के) अतिरिक्त अन्य कोई भी उन्हें इन नागों के बन्धन से छुडाने में समर्थ नहीं हो सकता था। इस प्रकार कहकर तथा राम – लक्ष्मण को नीरोग करके गरुड ने राम से आज्ञा ली और आकाशमार्ग की ओर प्रस्थान किया।

कथा की प्रतीकात्मकता

प्रस्तुत कथा प्रतीकात्मक है । अतः पहले प्रतीकों को समझ लेना उपयोगी है।

1-       इन्द्रजित् – इन्द्रजित् (इन्द्र –जित्) शब्द का अर्थ है – इन्द्र को जीत लेने वाला। इन्द्र शब्द यहां शुद्ध, शान्त, स्थिरमन का वाचक है। अतः जो विकार मनुष्य के इस शुद्ध, शान्त, स्थिर मन को अपने वशमें कर लेता है, उसे इन्द्रजित् कहा जा सकता है। एक शब्द में कहना चाहें तो क्रोध नामक विकार को ही इन्द्रजित् कहा जा सकता है क्योंकि क्रोध मनुष्य के शुद्ध, शान्त, स्थिर मन को अपने अधीन कर लेता है। इन्द्रजित् का ही दूसरा नाम मेघनाद अर्थात् मेघ की भाँति गर्जन करने वाला भी है,अतः इस गर्जन के आधार पर भी इन्द्रजित् नामक पात्र क्रोध के प्रतीक रूप में युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

2-       इन्द्रजित् को प्राप्त हुई अन्तर्धान विद्या – क्रोध दो प्रकार का होता है। एक दृश्य अर्थात् दिखाई देने वाला तथा दूसरा अदृश्य अर्थात् जो दिखाई तो नहीं देतापरन्तु मन के भीतर व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों के रूप में विद्यमान होता है। जोर – जोर से बोलना, चिल्लाना मुख का लाल हो जाना अथवा हाथ- पैरों को पटकनाआदि ऐसे कईं लक्षण होते हैं जिनके द्वारा क्रोध नामक विकार दृश्य हो जाता है और इन लक्षणों के आधार पर किसी भी मनुष्य के लिए उस क्रोध को पहचानना सरल भी होता है। परन्तु अदृश्य क्रोध में उपर्युक्त वर्णित कोई भी लक्षण विद्यमान नहीं होता। केवल मनुष्य का मन व्यर्थ, अनुपयोगी विचारों से भर जाता है और क्रोध करने वाला व्यक्ति स्वयं ही अपने मन के ऊपर ध्यान देकर उसे देखने में समर्थ हो पाता है। इस अदृश्य अथवा अप्रकट क्रोध को ही कथा में इन्द्रजित् को प्राप्त हुई अन्तर्धान विद्या कहा गया है।

3-       अदृश्य हुए इन्द्रजित् द्वारा प्रयुक्त नागमय बाण

अदृश्य, अप्रकट अथवा आन्तरिक क्रोध की स्थिति में मनुष्य का मन जिन व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों से युक्त हो जाता है, उन व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों को ही यहाँ इन्द्रजित् के नागमय बाण कहकर संकेतित किया गया है।

  कथा में नागमय बाणों को कद्रू के पुत्र कहा गया है। कद्रू शब्द कद् अव्यय के साथ रु नामक धातु के योग से बना है। कद् का अर्थ है – बुरा या दूषित तथा रु का अर्थ है – ध्वनि करना या शब्द करना। अतः कद्रू शब्द ऐसी प्रकृति (मन – बुद्धि) को इंगित करता है जो बुरी या दूषित ध्वनि वाली है। ऐसी प्रकृति (मन – बुद्धि) से ही व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों की उत्पत्ति होती है जिन्हें कथा में नागमय बाण कहा गया है।

  नाग शब्द न अव्यय के साथ अग शब्द के मेल से बना है। अग (अ – गच्छति) का अर्थ है – चलने में असमर्थ और न का योग होने पर नाग का अर्थ हुआ – चलने में समर्थ। चूंकि व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचार मन की गहराई से निकलकर तुरन्त ऊपर आ जाते हैं, इसलिए इस तीव्र गति से चलने के कारण ही इन्हें नाग नाम दिया गया है।

4-       अदृश्य हुए इन्द्रजित् द्वारा नागमय बाणों से राम – लक्ष्मण का बन्धन -

यहाँ यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि दृश्य क्रोध में यह सामर्थ्य नहीं होती कि वह आत्मज्ञानी को अपने आधीन कर सके अर्थात् आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य कभी भी दृश्य क्रोध – जैसे चीखना – चिल्लाना, सामान फेंकना अथवा व्यर्थबकवाद करना आदि – के वशीभूत नहीं होता परन्तु अदृश्य क्रोध अर्थात् व्यर्थ विचार प्रकट होकर कभी – कभी विचार शक्ति को पंगु बना देते हैं और आत्मज्ञानी मनुष्य उनसे बंध जाता है।

5 – विनतानन्दन गरुड द्वारा राम – लक्ष्मण की बन्धन से मुक्ति

     पौराणिक साहित्य में गरुड नामक पक्षी को श्रेष्ठ ज्ञान के प्रतीकरूप में ग्रहण किया गया है। श्रेष्ठ ज्ञान का अर्थ है – यह समझ लेना कि आत्मा के स्तर पर पूर्णतः एक समान होते हुए भी प्रकृति (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर) के स्तर पर प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न है। इसीलिए प्रत्येक मनुष्य की सोच, उसका व्यवहार तथा उसकी पसन्द – नापसन्द आदि भिन्न – भिन्न हैं।इस भिन्नता को पूर्णतः स्वीकार करते हुए जीना ही सुखुपूर्ण जीवन का एक मात्र आधार है।

     आत्मज्ञानी (अपने वास्तविक स्वरूप – आत्मस्वरूप को पहचानने वाला) मनुष्य यदि कभी आन्तरिक क्रोध से घिरकर व्यर्थ, अनुपयोगी विचारों के वशीभूत हो जाता है, तब अन्तर मन में विद्यमान यही उपर्युक्त वर्णित श्रेष्ठ ज्ञान तुरन्त अवतरित होकर मनुष्य को उन सभी व्यर्थ, अनुपयोगी विचारों के बन्धन से मुक्त करता है जिनका निर्माण केवल इस कारण से हो जाता है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के अपने से सर्वथा भिन्न स्वभाव –संस्कार को कभी – कभी स्वीकार नहीं करपाताहै। इसी तथ्य कोकथा में गरुड का आकर नागमय बाणों से बंधे हुए राम – लक्ष्मण को मुक्त करने के रूप में इंगित किया गया है।

     गरुड को विनता का पुत्र कहकर यह संकेतित किया गया है कि जब मनुष्य की प्रकृति (मन – बुद्धि) विनता (वि – नता) अर्थात् झुकी हुई अहंकार से रहित होती है, तभी उसके भीतर गरुड रूपी उपर्युक्त वर्णित श्रेष्ठ ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है और इस श्रेष्ठ ज्ञान के समक्ष फिर व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचार टिक नहीं पाते, तुरन्त भाग जाते हैं जिसे कथा में गरुड के आते ही नागमय बाणों के भाग जाने के रूप में इंगित किया गया है।

कथा का अभिप्राय

अनेकानेक जन्मों की लम्बी यात्रा में मनुष्य जिन कर्मों की आवृत्ति बार – बार करता है, वे कर्म संस्कार बनकर चित्त में (मन की गहराई में) इकठ्ठे हो जाते हैं और फिर पर्त के ऊपर पर्त्त बनकर इकठ्ठे हुए उन संस्कारों को विनष्ट करना बहुत कठिन हो जाता है। इकठ्ठे हुए ये संस्कार यद्यपि दैवी और आसुरी दोनों ही प्रकार के होते हैं, परन्तु देह – चेतना में रहने के कारण आसुरी संस्कारों का प्राबल्य अधिक होता है, जिन्हें अहंकार तथा काम, क्रोध, लोभ – मोहादि विकारों के रूप में जाना जा सकता है। रामकथा में रावण और उसका परिवार इन्हीं समस्त विकारों का प्रतिनिधित्व करता है।

     देहचेतना में रहकर इकठ्ठे किए हुए इन संस्कारों को अब देह चेतना में रहकर ही विनष्ट नहीं किया जा सकता। इनको विनष्ट करने का अब एकमात्र उपाय है – आत्मज्ञान अर्थात् स्व –स्वरूप को पहचान कर अपने प्रत्येक विचार का निर्माता और नियन्ता बन जाना जिसे रामकथा में राम – लक्ष्मण के रूप में चित्रित किया गया है।

     आत्मज्ञान में स्थित होकर और अपने प्रत्येक विचार का निर्माता – नियन्ता बनकर जब मनुष्य अपने ही चित्त में इकठ्ठे हुए अपने ही संस्कार रूप विकारों को विनष्ट करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तब अपने ही भीतर एक दिव्य संग्राम प्रारम्भ होता जाता है, जिसे रामकथा में राम – रावण संग्राम के रूप में इंगित किया गया है। अपने ही भीतर चलने वाले ऐसे संग्रामों को पौराणिक साहित्य में देवासुर – संग्राम भी कहा गया है। इस दिव्य संग्राम के अन्तर्गत जैसे ही कोई विकार चित्त से निकलकर बाहर आता है, वैसे ही आत्मज्ञानी मनुष्य सावधान होकर अपनी ज्ञानवृत्तियों के सहारे उस विकार को विनष्ट करने का यथासम्भव प्रयत्न करता है और अन्ततः उस विकार को विनष्ट भी कर देता है। परन्तु कभी – कभी कोई विकार इतना प्रबल होता है कि वह विकार न केवल आत्मज्ञान को अपितु उसकी संकल्पशक्ति को भी अपने बन्धन में बाँध लेता है।

     प्रस्तुत कथा के माध्यम से इन्द्रजित् नामक पात्र के रूप में क्रोध नामक विकार की इसी प्रबलता को दर्शाया गया है।

     कथा संकेत करती है कि क्रोध नामक विकार के दो स्वरूप हैं । एक है – दृश्य(प्रकट) क्रोध तथा दूसरा है – अदृश्य(अप्रकट) क्रोध। दृश्य क्रोध वह है जो अनेक प्रकार के लक्षणों, जैसे जोर –जोर से चिल्लाना, सामान फेंकना, अपशब्दों का उच्चारण करना आदि के द्वारा सभी को दिखाई देता है। इसके विपरीत, अदृश्य क्रोध वह है जिसका कोई लक्षण तो नहीं होता परन्तु मनुष्य चित्त से निकले हुए व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचारों के वशीभूत हो जाता है। कथा संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य (राम) दृश्य क्रोध के आधीन तो कभी नहीं होता परन्तु संकल्प शक्ति के भी शिथिल हो जाने से वह कभी – कभी अदृश्य क्रोध के आधीन अवश्य हो जाता है। इसे ही कथा में अदृश्य हुए इन्द्रजित् के नागमय बाणों से राम – लक्ष्मण का बंध जाना कहा गया है।

     कथा यह महत्त्वपूर्ण संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य का व्यर्थ विचारों के आधीन हो जाना केवल क्षणिक अथवा अल्पकालिक ही होता है,क्योंकि श्रेष्ठज्ञान के उतरते ही वे व्यर्थ, अनुपयोगी, नकारात्मक विचार तुरन्त विलीन हो जाते हैं, जिसे कथा में गरुड के आते ही नागमय बाणों के भाग जाने के रूप में इंगित किया गया है।

     तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान में स्थित मनुष्य एक सामान्य मनुष्य की भाँति बहुत लम्बे समय तक व्यर्थ विचारों से ग्रस्त नहीं रहता। वह जान लेता है कि प्रकृति अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त की भिन्नता के कारण प्रत्येक मनुष्य के सोचने – समझने का स्तर अलग –अलग है, सबकी पसन्द – नापसन्द भी अलग –अलग है। अतः सभी मनुष्य आत्मा के स्तर पर एक समान होते हुए भी प्रकृति के स्तर पर बिल्कुल अलग – अलग हैं। इसी श्रेष्ठ ज्ञान को कथा में गरुड कहकर इंगित किया गया है। इस श्रेष्ठ ज्ञान के आगमन से व्यर्थ विचार तो स्वयमेव भाग जाते हैं। व्यर्थ विचार वे विचार हैं जो उपर्युक्त वर्णित ज्ञान के अभाव में मन के भीतर तब उत्पन्न हो जाते हैं जब कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने समान बनाने की व्यर्थ कामना से युक्त हो जाता है। इन व्यर्थ विचारों से ग्रस्त हो जाने को ही कथा में नागमय बाणों से प्राप्त हुई राम –लक्ष्मण की मूर्छा कहकर इंगित किया गया है।

प्रथम लेखन – 15 – 11- 2014ई.(मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, विक्रम संवत् 2071)

Power of Anger and Knowledge

Through

Bondage and Liberation of Rama – Lakshmana

-    Radha Gupta

In Yuddha Kanda (Chapters 44, 45 and 50) there is a story of battle between Rama – Lakshmana and Indrajit, the son of Ravana. When Indrajit failed to face Rama and Lakshmana directly, he , by hiding himself , captured them by binding with Naga –arrows. Rama and Lakshmana got  fainted and the whole brigade of vanaras became frightened. Vibheesana consoled the brigade and vanara Sushena suggested to bring the medicines to cure Rama and Lakshmana. But in the meantime, Garuda deva appeared and when he approached, all the Naga – arrows disappeared. Rama became conscious and embraced Garuda. Garuda told Rama that he is his friend and came here to liberate them from the Naga – arrows – sons of  Kadru. Garuda told  them to remain careful and flew away.

          The story is symbolic and describes the power of Anger and Knowledge both.

          One should remember here that a person has to fight a battle of life with his own vices(sanskaras) settled in one’s own sub – conscious mind. Many vices reside there and come – up on conscious level. Anger is a powerful vice symbolized as Indrajit in the story.

          The story describes that there are two types of Angers. One is visible which can be seen through different actions and behaviours such as crying or speaking loudly, throwing the objects or behaving foolishly. The other is invisible which resides insideinthe form of waste, negative thoughts. Visible anger tries best to overpower a Self – Knowledged person, but fails totally. Invisible anger also tries to overpower and succeedsdue to waste, negative thoughts possessed by a Self – Knowledged person. This possession of waste negative thoughts is symbolized as the capturing of Rama and Lakshmana by Indrajit through his Naga – arrows.

          The story tells that although a Self – Knowledged person perfectly knows that every person is different on all levels – gross, subtle and causal, due to which his thinking , behaving and liking is different, but at a  moment,when he forgets it, anger in the form of waste – futile thoughts overpower him symbolized as Naga – arrows of Indrajit.

          The story depicts this truth also that although waste futile thoughts overpower a Self – Knowledged person but these futile thoughts immediately disappear as soon as the above knowkedge descends in him. This is symbolized as the coming of Garuda and running away of Naga – arrows.

 

 

 

 

मेघनाद का वैदिक पक्ष

-    विपिन कुमार

मेघनाद का मेघनाद नाम इसलिए पडा क्योंकि जन्म के समय उसने मेघों की भांति गर्जन किया था। तान्त्रिक हठयोग साहित्य में नाद बहुत प्रचलित है, अतः यह समझने की आवश्यकता है कि मेघ नाद क्या होता है। हंसोपनिषद में नाद का वर्गीकरण 10 स्तरों में किया गया है। जिनमें मेघ नाद दसवां और सबसे श्रेष्ठ है। यह पुण्य –पाप से परे ब्रह्मात्म संनिधि की स्थिति कही गई है। इससे पहले नवें स्तर पर भेरीनाद कहा गया है जिसमें देह अदृश्य हो जाती है और दिव्य चक्षु की प्राप्ति हो जाती है। इससे भी पूर्व के नाद शंखनाद, तन्त्रीनाद, तालनाद, वेणुनाद आदि हैं। यदि मेघ स्तर का नाद इतना पवित्र है तो उसको रावण – पुत्र मेघनाद के रूप में चित्रित करने की आवश्यकता क्यों पडी। वराहोपनिषद 3.3 में उल्लेख है कि जैसे मेघ व्योम का कहीं स्पर्श नहीं करते, वैसे ही संसार के दुःखों का मेरी चेतना से कहीं स्पर्श नहीं होना चाहिए। इस कथन के लिए यह समझना होगा कि मेघ द्वारा व्योम को स्पर्श न करने की जो स्थिति कही गई है, वह एकदम उत्पन्न नहीं हो गई है। पहले भूमि पर स्थित जल से वाष्प बनती है जो क्रमिक रूप से ऊपर चढती हुई व्योम या आकाश में स्थित हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य की देह में अन्नरस ऊर्ध्वमुखी होता है और विभिन्न स्तरों पर एकत्र हो जाता है। साधु पुरुषों के चेहरे पर दिखाई देने वाले तेज को मेघ ही कहा जा सकता है। राम आदि देव कोटि की चेतनाओं के चेहरों पर भी तेजोमण्डल दिखाया जाता है। साधु पुरुषों व देव कोटि की चेतनाओं के तेज में अंतर यह होता है कि साधु पुरुषों के मुख का तेज परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। वह शरीर में नागिन कुण्डली की स्थिति के अनुसार उतरता – चढता रहता है। लेकिन देव कोटि की चेतनाओं में वह तेज शरीर की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता। वह एकदम स्थिर रहता है – जागते हुए भी, सोते हुए भी। इस तेज या ब्रह्मवर्चस को ही मेघ कहा गया है(तैत्तिरीय आरण्यक 1.24.1  )। और यह नहीं है कि मेघ केवल साधु पुरुषों में ही बनता हो। मेघ तो सभी मनुष्यों में बनता है। काम, क्रोध से भी मेघ बनता है। अन्तर यही है कि आकाश या व्योम में स्थित होने पर आकाश  उस मेघ के गुणों से अछूता नहीं रहेगा। यदि क्रोध के कारण मेघ बना है तो हमारी देह में जितना आकाश तत्त्व है, वह सब क्रोध कारण कुपित हो जाएगा।

रावण के व्यक्तित्व का आरम्भ रव, शोर से हुआ है और उसकी पराकाष्ठा मेघनाद के रूप में नाद के सर्वश्रेष्ठ रूप तक पहुंच रही है। यह कहा जा सकता है कि मेघनाद का मेघ साधु पुरुषों की कोटि का, उतरने – चढने वाला मेघ है, जबकि राम – लक्ष्मण का तेज देव – कोटि का है। यदि मेघनाद और राम – लक्ष्मण सभी को एक साधक की विभिन्न अवस्थाएं मान लिया जाए तो मेघनाद के स्तर के मेघ से छुटकारा पाने का उपाय गरुड का प्रकट होना कहा गया है। गरुड सर्पों का शत्रु कहा जाता है। सर्पों की गति तिर्यक् गति होती है, गरुड की ऊर्ध्वमुखी।

मेघनाद के चरित्र को इससे अधिक समझने के लिए हमें पातंजल योगसूत्र के इस सूत्र को समझना होगा –

प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः। ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः – कैवल्यपाद 29 – 30

इस सूत्र की व्याख्या कुछ इस प्रकार से की जा सकती है – संख्या शब्द खण्डित स्तर को, दिति के स्तर को, द्यूत के स्तर को, घटनाओं के आकस्मिक रूप से घटने को सूचित करता है। कुसीद चक्रवृद्धि ब्याज को कहते हैं। पापों के कारण हमारी चेतना लगातार ऋणात्मकता की ओर बढ रही है। अतः उस ऋण पर ब्याज पर ब्याज चढता जा रहा है। सूत्र कह रहा है कि यदि तुम खण्डित स्तर पर भी हो तो कम से कम ब्याज से मुक्त तो हो जाओ। तब तुम्हें विवेक प्राप्त होगा। विवेक प्राप्ति के पश्चात् धर्ममेघ समाधि की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। तब क्लेशकर्म से निवृत्ति मिल जाएगी। यहां क्लेशकर्म से निवृत्ति से तात्पर्य यह हो सकता है कि साधना में जिन कठिन व्रतों – उपवासों को करना पडता है, अब वह क्लेशकारक नहीं रहेंगे, अब साधना आनन्दपरक हो जाएगी। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह मेघों के वर्षण के पश्चात् की स्थिति है। जब तक मेघ बरसे नहीं है, तब तक तो क्लेशकारक साधना ही रहेगी।

अब योगदर्शन के इस सूत्र की तुलना मेघनाद के चरित्र से करते हैं। मेघनाद के विषय में वाल्मीकि रामायण 6.85 में विभीषण का कथन है कि यदि मेघनाद युद्ध से पहले निकुम्भिला देवी के मंदिर में होमादि कार्य कर ले तो वह शत्रुओं के लिए अजेय हो जाता है। ऐसा मेघनाद को वरदान मिला हुआ है। अतः यदि मेघनाथ का वध करना हो तो निकुम्भिला देवी के मंदिर में होमादि करने से पूर्व ही उसको मारना होगा। मेघनाद निकुम्भिला देवी की अर्चना किस प्रकार करता है,यह वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड अध्याय 82 में वर्णित है। उत्तरकाण्ड अध्याय 25 में उल्लेख आता है कि स्वयं रावण ने ही यज्ञ की व्यर्थता समझ कर मेघनाद को निकुंभिला देवी की अर्चना से रोक दिया। सुन्दरकाण्ड अध्याय 24 में कथन है कि राक्षसियां सीता को डरा रही हैं कि हम तुम्हारा मानुष मांस खाकर और सुरा पीकर निकुम्भिला देवी के मंदिर में नृत्य करेंगी। इसके सिवाय अन्य किसी ग्रन्थ में निकुम्भिला देवी का उल्लेख नहीं पाया गया है। लेकिन निकुम्भ का उल्लेख पौराणिक साहित्य में मिलता है। निकुम्भ शिव का गण भी है। एक गणेश विशेष का नाम भी निकुम्भ है जिसे शिव आज्ञा देते हैं कि वह काशी में प्रतिष्ठित होकर काशी को जनशून्य बना दे। कुम्भ व निकुम्भ कुम्भकर्ण के पुत्रों का नाम भी है। निकुम्भ का युद्ध नील वानर से होता है। नील का अर्थ होता है निलय – घर में, अन्दर बसने वाला। इससे यह प्रतीत होता है कि निकुम्भिला देवी का कार्य एकान्तिक साधना, घर से बाहर निकालकर उसे सामाजिक क्षेत्र में,सार्वत्रिक साधना में, समाधि से व्युत्थान की स्थिति में भेजना है। पातंजल योगसूत्र की भाषा में यह क्लेशकारक साधना से उत्तर की, आनन्द की स्थिति है जहां मेघ आनन्द की वर्षा कर रहे होते हैं। लेकिन पातंजलयोगसूत्र यह निर्देश करता है कि जब तक ऋण के ब्याज से मुक्ति की स्थिति न आ जाए, तब तक धर्ममेघ समाधि की बात मत करना। यह ध्यान देने योग्य है कि अन्त में लक्ष्मण ने इन्द्रजित् या मेघनाथ का वध कौन से अस्त्र से किया। मेघनाद का वध ऐन्द्रास्त्र से किया गया। इन्द्र स्थिति इन्द्रियों का स्वामी बनने की है।  

मेघनाद के विषय में कहा गया है कि वह अग्निष्टोम से लेकर अश्वमेध तक सात यज्ञों का करने वाला है और उसे वरदान है कि जब वह यज्ञ करके संग्राम में उतरेगा तो अजेय होगा। जब अन्तिम बार वह लडने गया, उससे पहले उसके पास उसका पिता रावण आया। मेघनाद से पूछने पर जब उसे ज्ञात हुआ कि वह यज्ञ कर रहा है, रावण ने यज्ञ की व्यर्थता पर जोर दिया जिस पर मेघनाद से यज्ञ का परित्याग कर दिया और रण में मारा गया। मेघनाद को जिन यज्ञों का निष्पादन करते हुए कहा गया है, उन सभी में प्रयाज नामक एक कृत्य होता है जिसमें मेघ के निर्माण के विभिन्न स्तरों और उससे वृष्टि का प्रदर्शन किया जाता है। सबसे पहले पुरोवात बनती है, फिर अभ्रों का निर्माण होता है, फिर स्तनयित्नु या गर्जन का, फिर विद्युत का और अन्त में वृष्टि हो जाती है। प्रत्येक स्तर पर किन्हीं अक्षर समूहों का जोर से उच्चारण किया जाता है – ओ श्रावय से पुरोवात (मेघ लाने वाली वायु) बनती है, अस्तु श्रौषट् से अभ्रों या मेघों का निर्माण होता है, यज से विद्युत बनती है, ये यजामहे से स्तनयित्नु (गर्जन) का निर्माण होता है (शतपथ ब्राह्मण 1.5.2.18)। अन्त में वषट् या वौ३षट् का उच्चारण करने पर वृष्टि हो जाती है। घर्म या मेघ या अभ्र का बनना तो स्वाभाविक रूप से भी हो जाता है, लेकिन गर्जन व विद्युत उत्पन्न किस प्रकार की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है। यहां ओ श्रावय आदि जिन व्याहृतियों का प्रयोग किया जा रहा है, उनका तात्पर्य या उद्देश्य बहुत स्पष्ट नहीं है। ओ श्रावय से तात्पर्य ओंकार में स्थित होना हो सकता है।  वौषट् के विषय में कहा गया है कि असौ वै वौ, षट् वै षट् ऋतवः। अर्थात् आकाश में स्थित सूर्य तो वौ है, और उसका पृथिवी पर  छह ऋतुओं के रूप में फैल जाना षट् है। इससे यह ज्ञात होता है कि तेज के ऊर्ध्वमुखी होने और फिर वृष्टि के रूप में नीचे आने का जो चक्र है, वह व्यर्थ नहीं है। उससे भूमि रूपी हमारी देह को उर्वरा शक्ति प्राप्त होती है, अंकुरण शक्ति प्राप्त होती है। जब तक इस मेघ रूपी तेज को इस प्रकार नियन्त्रित किया जाता रहेगा, तब तक मेघनाद भी अजेय रहेगा। जैसे ही यज्ञ प्रक्रिया की उपेक्षा की जाएगी, मेघनाद मरणधर्मा बन जाएगा। मेघनाद की कथा में राम –लक्ष्मण के समक्ष गरुड का प्रकट होना कहा गया है। वैदिक कर्मकाण्ड में सूर्य को भी श्येन कहा जाता है।

    वैदिक साहित्य में मेघ का निर्माण और उससे वृष्टि का जनन केवल आकाश के मेघ तक सीमित नहीं है। गौ के दोहन के रूप में भी इसी प्रक्रिया को दोहराया गया है। प्राणियों की देह में उत्पन्न होने वाले मूत्र को भी वृष्टि का रूप कहा जाता है।  महोपनिषद 5.179 से संकेत मिलता है कि चित्त से चित् शक्ति को क्रमिक विकसित करना भी मेघ के निर्माण के समान है। इस प्रक्रिया में अंकुर के रूप में संकल्प का विकास कहा गया है।

प्रथम लेखन – 17-11-2014ई.(मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, विक्रम संवत् 2071)

 

संदर्भ

चतुष्ट्य्य आपो गृहाति । चत्वारि वा अपाँ रूपाणि । मेघो विद्युत् स्तनयित्नुर्वृष्टिः । तान्येषावरुन्धे । आतपति वर्ष्या गृह्णाति । ताः पुरस्तादुपदधाति । एता वै ब्रह्मवर्चस्या आपः । मुखत एव ब्रह्मवर्चसमवरुन्धे । तस्मान्मुखतो ब्रह्मवर्चसितरः ।  - तै.आ. 1.24.1

तस्य वा एतस्य यज्ञस्य मेघो हविर्धानं विद्युदग्निर्वर्षं हविस्तनयित्नुर्वषट्कारो यदवस्फूर्जति सोऽनुवषट् कारो वायुरात्माऽमावास्या स्विष्टृकृत् । य एवं विद्वान्मेघे वर्षति विद्योतमाने स्तनयत्यवस्फूर्जति पवमाने वायावमावास्यायाँ स्वाध्यायमधीते तप एव तत्तप्यते तपो हि स्वाध्याय इति । - तै.आ. 2.14.1

जाग्रदावस्था कर्णिकायां स्वप्नं लिङ्गे सुषुप्तिः पद्मत्यागे तुरीयं यदा हंसो नादे लीनो भवति तदा तुर्यातीतमुन्मननमजपोपसंहारमित्यभिधीयते । एवं सर्वं हंसवशात्तस्मान्मनो विचार्यते । स एव जपकोट्यां नादमनुभवति एवं सर्वं हंसवशान्नादो दशविधो जायते । चिणीति प्रथमः । चिञ्चिणीति द्वितीयः । घण्टानादस्तृतीयः । शङ्खनादश्चतुर्थम् । पञ्चमस्तन्त्रीनादः । षष्ठस्तालनादः । स- प्तमो वेणुनादः । अष्टमो मृदङ्गनादः । नवमो भेरीनादः । दशमो मेघनादः । नवमं परित्यज्य दशममेवाभ्यसेत् । प्रथमे चिञ्चिणीगात्रं द्वितीये गात्रभञ्ज- नम्। तृतीये खेदनं याति चतुर्थे कम्पते शिरः ।। पञ्चमे स्रवते तालु षष्ठेऽमृतनिषेवणम् । सप्तमे गूढविज्ञानं परा वाचा तथाऽष्टमे ।। अदृश्यं नवमे देहं दिव्यचक्षुस्तथाऽमलम् । दशमं परमं ब्रह्म भवेद्ब्रह्मात्मसंनिधौ ।। तस्मिन्मनो विलीयते मनसि संकल्पविकल्पे दग्धे पुण्यपापे सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयंज्योतिः शुद्धो बुद्धो नित्यो निरञ्जनः शान्तः प्रकाशत इति ।। - हंसोपनिषद

इन नादों के संगीतशास्त्र के माध्यम से भी समझने की आवश्यकता है। श्रीमती विमला मुसलगाँवकर ने अपनी पुस्तक भारतीय संगीतशास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन में यह स्पष्ट किया है कि यह नाद किस स्तर के हैं। घंटानाद से हमारी सुप्त पडी चेतना जाग्रत होती है। शंखनाद, वेणुनाद आदि नाद के वह रूप हैं जिनमें नाद उत्पन्न करने के लिए चेतना में प्राणों को फूंकना पडता है। तब वह नाद सक्रिय हो पाते हैं।

अङ्गुष्ठाभ्यां मुने श्रोत्रे तर्जनीभ्यां तु चक्षुषो । नासापुटा- वधानाभ्यां प्रच्छाद्य करणानि वै ।। ३४ ।। आनन्दाविर्भवो यावत्तावन्मूर्धनि धारणात् । प्राणः प्रयात्यनेनैव ब्रह्मरन्ध्रं महामुने ।। ३५ ।। ब्रह्मरन्ध्रं गते वायौ नादश्चोत्पद्यतेऽनघ । शङ्खध्वनिनिभश्चादौ मध्ये मेघध्वनिर्यथा ।। ३६ ।। शिरोमध्यगते वायौ गिरिप्रस्रवणं यथा । - जाबालदर्शनोपनिषद 6.36

 

आनन्दरूपोऽहमखण्डबोधः परात्परोऽहं घनचित्प्रकाशः । मेघा यथा व्योम न च स्पृशन्ति संसारदुःखानि न मां स्पृशन्ति ।। ३ ।। वराहोपनिषद 3.3

 

चितश्चेतोन्मुखत्वं यत्तत्संकल्पाङ्कुरं विदुः ।। १७८ ।। लेशतः प्राप्तसत्ताकः स एव घनतां शनैः । याति चित्तत्वमापूर्य दृढं जाड्याय मेघवत् ।। १७९ ।। भावयन्ति चितिश्चैत्यं व्यतिरिक्तमिवात्मनः । संकल्पतामिवायाति बीजमङ्कुरतामिव ।। १८० ।। संकल्पनं हि संकल्पः स्वयमेव प्रजायते । - महोपनिषद 5.179

वृष्टौ पञ्चविधं सामोपासीत । पुरोवातो हिङ्कारः । मेघो जायते स प्रस्तावः । वर्षति स उद्गीथः । विद्योतते स्तनयति स प्रतिहारः ॥ २,३.१ ॥ उद्गृह्णाति तन्निधनं वर्षयति ह य एतदेवं विद्वान् वृष्टौ पञ्चविधं सामोपास्ते ॥ छां.उपनिषद ,३.२ ॥

सर्वास्वप्सु पञ्चविधं सामोपासीत । मेघो यत्संप्लवते स हिङ्कारः । यद्वर्षति स प्रस्तावः । याः प्राच्यः स्यन्दन्ते स उद्गीथः । याः प्रतीच्यः स प्रतिहारः । समुद्रो निधनम् ॥ २,४.१ ॥ न हाप्सु प्रैत्यप्सुमान् भवति य एतदेवं विद्वान् सर्वास्वप्सु पञ्चविधं सामोपास्ते ॥ छां.उपनिषद ,४.२ ॥

अभ्राणि संप्लवन्ते स हिङ्कारः । मेघो जायते स प्रस्तावः । वर्षति स उद्गीथः । विद्योतते स्तनयति स प्रतिहारः । उद्गृह्णाति तन्निधनम् । एतद्वैरूपं पर्जन्ये प्रोतम् ॥ २,१५.१ ॥ स य एवमेतद्वैरूपं पर्जन्ये प्रोतं वेद । विरूपांश्च सुरूपंश्च पशूनवरुन्धे । सर्वमायुरेति । ज्योग्जीवति । महान् प्रजया पशुभिर्भवति । महान् कीर्त्या । वर्षन्तं न निन्देत् । तद्व्रतम् ॥ छां.उपनिषद ,१५.२ ॥

तस्मिन् यवात्संपातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते । आकाशम् । आकाशाद्वायुम् । वायुर्भूत्वा धूमो भवति । धूमो भूत्वाभ्रं भवति ॥ ५,१०.५ ॥ अभ्रं भूत्वा मेघो वति । मेघो भूत्वा प्रवर्षति । त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमासा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरम् । यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्भूय एव भवति ॥ छां.उपनिषद ,१०.६ ॥ - छां.उपनिषद